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हरिवंशपुराणे हरिरयं प्रभवः प्रथमोऽभवत्सुयशसो हरिवंशकुलोद्गते । जगति यस्य सुनामपरिग्रहाच्चरति भो हरिवंश इति श्रुतिः ॥५८॥ अमवदस्य महागिरिरङ्ग जो हिमगिरिस्तनयः सुन यस्ततः । वसुगिरिश्च ततो गिरिरित्यमी त्रिदिवमोक्षयुजस्तु यथायथम् ॥५२॥ शतमखप्रतिमाः शतशस्ततः क्षितिभृतो हरिवंशविशेषकाः ।। क्रमताधिकराज्यतपोधुराः शिवपदं ययुरत्र दिवं परे ॥६॥ व्यपगतेषु नृपेषु बहुवतः क्षितिपतिर्मगधाधिपतिः क्रमात् । इह बभूव हरिप्रमवान्वये कुशलधामकुशाग्रपुराधिपः ॥६॥ स हि सुमित्र इति श्रुतनामकः श्रुतविशेषविभूषितपौरुषः । अनुशशास भुवं सह पद्मया श्रितसखः प्रियया जिनभक्तया ॥६२॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो हरिवंशोत्पत्तिवर्णनो नाम
पञ्चदशः सर्गः।
इन्द्रके समान प्रसिद्ध राजा हुआ। राजा आर्य और रानी मनोरमाने चिरकाल तक पुत्रको विशाल लक्ष्मीका अनुभव किया तत्पश्चात् दोनों अपने-अपने कर्मों के अनुसार परलोकको प्राप्त हुए ।।५७॥ यही राजा हरि, परम यशस्वी हरिवंशकी उत्पत्तिका प्रथम कारण था। जगत्में इसीके नामसे हरिवंश इस नामको प्रसिद्धि हुई ॥५८॥ राजा हरिके महागिरि नामका पुत्र हुआ। महागिरिके उत्तम नीतिका पालक हिमगिरि पुत्र हुआ। हिमगिरिके वसुगिरि और वसुगिरिके गिरि नामका पुत्र हुआ। ये सभी यथायोग्य स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त हुए ।।५९॥ तदनन्तर हरिवंशके तिलकस्वरूप इन्द्रके समान सैकड़ों राजा हुए जो क्रमसे विशाल राज्य और तपका भार धारण कर कुछ तो मोक्ष गये और कुछ स्वगं गये ॥६०।। इस प्रकार क्रमसे बहुत-से राजाओंके होनेपर उसी हरिवंशमें मगध देशका स्वामी राजा सुमित्र हुआ। वह कुशल-मंगलका स्थान तथा कुशाग्रपुर नगरका अधिपति था। उसका पराक्रम शास्त्रोंके विशिष्ट ज्ञानसे विभूषित था। वह अपनी जिनभक्त प्रिया पद्मावतीके साथ सुखका उपभोग करता हुआ चिरकाल तक पृथिवीका शासन करता रहा ॥६१-६२॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराणमें हरिवंशकी
उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला पन्द्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥१५॥
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