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हरिवंशपुराणे
रम्याङ्गनाश्च कुलशैलसमुद्भवास्तमाद्यन्तमध्यसतताभ्युदया युवानम् । लावण्यवाहिनमवाप्य विवाहपूर्व नद्यः समुद्रमिव संवरयांबभूवुः ॥२०॥ राज्यस्थितः स हरिवंशमरीचिमाली राजा प्रजाकमलिनीहितलोकपालः । राजाधिराज सुरसेवितपादपद्मो भेजे चिरं विषयसौख्य मखण्डिताज्ञः ॥ २१॥ प्राप्ता कदाचिदथ तं शरदम्बुजास्था बन्धूकबन्धुरतयाधरपल्लवश्रीः । काशाच्छचामरकरा विशदाम्बुवस्त्रा वर्षावधूव्यतिगमे स्ववधूरिवैका ॥२२॥ अन्तर्दधे धवलगोकुलघोषघोषैर्मेघावली लघुविधूतरवेव धूम्रा । मेघावरोधपरिमुक्तदिशासु सूर्यः पादप्रसारणसुखं श्रितवश्विरेण ॥ २३॥ रोधोनितम्वगलदम्बुविचित्रवस्त्राः सावर्त्तनाभिसुभगाश्चलमीननेत्राः । फेनावलीवलय वीचिविलासवाहाः क्रीडासु जह रबलासरितोऽस्य चित्तम् ॥२४॥ ऊर्मिभ्रुवश्चटुलनेत्रशफर्यपाङ्गाः मत्तद्विरेफकलहंसनिनादरम्याः । फुल्लारविन्दमकरन्दरजोऽङ्गरागा रागं रतौ विदधुरस्य वधूसरस्यः ॥ २५॥
बढ़ते जाते थे ||१९|| जिस प्रकार कुलाचलोंसे उत्पन्न, आदि, मध्य और अन्तमें समान रूप से बहनेवाली नदियां लवण समुद्रको प्राप्त कर वरती हैं उसी प्रकार उत्तम कुलरूपी पर्वतोंसे उत्पन्न, बालक, युवा और वृद्ध तीनों अवस्थाओं में निरन्तर अभ्युदयको धारण करनेवाली सुन्दर स्त्रियोंने सौन्दर्यके धारक युवा गुनिसुव्रतनाथको प्राप्त कर विवाहपूर्वक वरा था ||२०||
तदनन्तर जो राज्य सिंहासनपर आरूढ़ थे, हरिवंशरूपी आकाशके मानो सूर्य थे, प्रजारूपी कमलिनीका हित करनेके लिए सूर्यस्वरूप थे, राजा, महाराजा और देव जिनके चरणकमलोंकी सेवा करते थे तथा जो अखण्ड आज्ञाके धारक थे ऐसे राजा मुनिसुव्रतनाथने चिरकाल तक विषयसुखका उपभोग किया || २१ ॥ अथानन्तर किसी समय शरद् ऋतु आयो सो वह ऐसी जान पड़ती थी मानो वर्षारूपी स्त्रीके चले जानेपर एक दूसरी अपनी ही स्त्री आयी हो अर्थात् वह शरदऋतु स्त्रीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार स्त्री कमलके समान मुखसे युक्त होती है उसी प्रकार वह शरदऋतु भी कमलरूपी मुखसे सहित थी, जिस प्रकार स्त्री लाल-लाल अधरोष्ठसे युक्त होती है उसी प्रकार वह शरद् ऋतु भी बन्धूकके लाल-लाल फूलरूपी अधरोष्ठसे युक्त थी, जिस प्रकार स्त्री हाथमें चामर लिये रहती है उसी प्रकार वह शरदऋतु भी काशके फूलरूपी स्वच्छ चामर हाथमें लिये थी और जिस प्रकार स्त्री उज्ज्वल वस्त्रोंसे युक्त होती है उसी प्रकार वह शरद् भी उज्ज्वल मेघरूपी वस्त्रोंसे युक्त थी || २२|| जिसने शीघ्र ही अपना शब्द बन्द कर दिया था ऐसी धूमिल मेघमाला, सफेद-सफेद गायोंके समूहसे युक्त अहीरोंको बस्ती के जोरदार शब्द सुनकर ही मानो अन्तर्हित हो गयी थी और मेघोंके आवरणसे रहित दिशाओंमें सूर्य चिरकालके बाद पादपाँवों ( पक्षमें किरणों ) के फैलानेका सुख प्राप्त कर सका था || २३ || जिनके तटरूपी नितम्बसे जलरूपी चित्र-विचित्र वस्त्र नीचे खिसक गये थे, जो भँवररूपी नाभिसे सुन्दर थीं, मीनरूपी चंचल नेत्रोंसे युक्त थीं और फेनावलीरूपी चूड़ियोंसे युक्त तरंगरूपी चंचल भुजाओंसे सहित थीं ऐसी नदोरूपी स्त्रियाँ क्रीड़ाओंके समय इनका हृदय हरने लगीं ||२४|| ऊर्मियां ही जिनकी भौंहें थीं, मछलियाँ ही जिनके चंचल कटाक्ष थे, जो मदोन्मत्त भोरों और कलहंसोंके शब्दसे मनोहर थीं और फूले हुए कमलों का मकरन्द सम्बन्धी पराग ही जिनका अंगराग था ऐसी सरसीरूपी स्त्रियां क्रीड़ाके समय इनके रागको उत्पन्न कर रही थीं ॥ २५ ॥
१. शरदम्बुजाक्षा म.
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