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शोडशः सर्गः
घ्राणेन्द्रियप्रियसुगन्धिसुगन्धमन्धो' जङ्घाबलादिव विलङ्घिततृप्तिमार्गः । दुष्पाकमस्तधिषणो विषपुष्पगन्धमाघ्राय शीघ्रमघमेति यथा षडङ्घ्रिः ॥४१॥ चित्तद्रवीकरणदक्ष कटाक्षपातसस्मेरवक्त्रवनिताङ्गनिविष्टदृष्टिः । रूपप्रियोऽपि लमते परितापमुग्रं प्राप्तः पतङ्ग इव दीपशिखाप्रपातम् ॥ ४२ ॥ स्वेष्टाङ्गना मुखरनूपुरमेखला दिनानाविभूषणरवैः प्रियभाषणैश्च । संगीतकैश्च मधुरैर्हृतधीरधीरः श्रोत्रेन्द्रियैमृग इव म्रियते मनुष्यः ॥४३॥ संक्लिश्यते विषयभोगकलङ्कपङ्के यत्पुङ्गवां ततिरिहाल्पबला निमग्ना । चित्रं न तद् यदतिमज्जति वज्रकाय पुन्नागसंततिरितीदमतीव चित्रम् ॥ ४४ ॥ यः स्वर्गसौख्यजलधीनतिदीर्घकालं पीत्वाऽपि तृप्तिमगमद् बहुशो न जीवः । सौहित्यमल्पदिवसैः कथमस्य कुर्यात् भूलोकसौख्यले वलोल तृणोदबिन्दुः ॥४५॥ अग्नेरिवेन्धन महानिचयैर्न तृप्तिरम्भोनिधेरिव सदापि नदीसहसैः । जीवस्य तृप्तिरिह नास्ति तथानिषेव्यैः सांसारिकैरुपचितैरपि काम मोगैः ॥४६॥ भोगाभिलाषविषमाग्निशिखाकलापसंवृद्धये हि विषयेन्धनराशिरुच्चैः । तस्यैव तु प्रशमहेतुरिहैव तस्माद् व्यावृत्तिरिन्द्रियजिति स्थिरवारिधारा ४७ ॥ हित्वा ततो विषय सौख्यमसारभूतं शीघ्रं यतेऽहमिह मोक्षपथे सनाथे । स्वार्थ साध्य परमं प्रथमं परार्थ तीर्थप्रवर्त्तनमथ प्रथयामि तथ्यम् ॥ ४८ ॥
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इच्छापूर्वक छह प्रकारके रसोंसे युक्त नाना प्रकारके इष्ट आहारको ग्रहण करता हुआ वंशीके काँटेपर लगे मांस के लोभो मीनके समान बन्धको प्राप्त होता है ||४०|| जिस प्रकार निर्बुद्धि भ्रमर विषपुष्पको गन्धको सँघकर दुष्पाकसे युक्त मरणको प्राप्त होता है उसी प्रकार जंघाबलके कारण ही मानो तृप्ति मार्गको उल्लंघन करनेवाला यह मनुष्य घ्राणेन्द्रियको अच्छे लगनेवाले सुगन्धित पदार्थोंकी सुगन्धको सँघकर अन्धा होता हुआ दुष्परिणामसे युक्त पाप बन्धको प्राप्त होता है || ४१ || जिस प्रकार दीप - शिखापर पड़ा पतंग उग्र सन्तापको प्राप्त होता है उसी प्रकार रूपका लोभी यह प्राणी, चित्तको द्रवीभूत करने में दक्ष कटाक्ष और मन्द मन्द मुसकुराहटसे युक्त मुखसे सुशोभित स्त्रियों के शरीरपर दृष्टि डालता हुआ भयंकर सन्तापको प्राप्त होता है ||४२ || अपनी इष्ट स्त्रियोंके शब्दायमान नूपुर तथा मेखला आदि नाना प्रकारके आभूषणोंके शब्दों, प्रियभाषणों और मधुर संगीतों से जिसकी बुद्धि हरी गयी है ऐसा यह मनुष्य अधीर होता हुआ श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा मृगके समान मृत्युको प्राप्त होता है ||४३|| अल्प शक्तिके धारक क्षुद्र मनुष्योंका समूह विषय-भोगजन्य पापरूपी कीचड़ में फँसकर जो क्लेश उठाता है वह आश्चर्य नहीं है किन्तु वज्रमय शरीर के धारक श्रेष्ठ मनुष्यों का समुदाय भी जो उस पापपंक में अतिशय निमग्न हो रहा है यह अत्यधिक आश्चर्यकी बात है ||४४|| जो जीव अनेकों बार अत्यन्त दीर्घ काल तक स्वर्गके सुखरूपी सागरको पीकर भी तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ उसे भूलोक सम्बन्धी अल्प सुखरूपी तृणकी चंचल जलबिन्दु कुछ दिनों में कैसे सन्तुष्ट कर सकती है ? ॥ ४५ ॥
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जिस प्रकार ईन्धनकी बहुत बड़ी राशिसे अग्निको तृप्ति नहीं होती और सदा गिरनेवाली हजारों नदियों से समुद्रको सन्तोष नहीं होता उसी प्रकार सेवन किये हुए संसार के संचित काम भोगों से जीवको तृप्ति नहीं होती ||४६ || निश्चयसे विषयरूपी ईन्धनकी बहुत बड़ी राशि, भोगाभिलाषारूपी विषम अग्निको ज्वालाओंकी वृद्धिका कारण है और इन्द्रियविजयी मनुष्यकी जो
विषयोंसे व्यावृत्ति है वह स्थिर जलधाराके समान उस विषमाग्निको शान्तिका कारण है || ४ || इसलिए मैं सारहीन विषयसुखको छोड़कर शीघ्र ही हितरूप मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्ति करता १. सन्धो म । २. - मणुलोल-ख । ३ तथाभिषेकैः म. ।
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