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पञ्चदशः सर्गः
द्रुतविलम्बितवृत्तम् अथ विबुद्धसरोजवनस्पृशा सुरमिणा स्पृशता मरुता तदा । हृतवपुःश्रमकं मिथुनं मिथस्तदकरोदुपगूढमतिश्लथम् ।।१।। मृदुतरङ्गघने शयनस्थले मदितपुष्पचये शयितोत्थितः । सह बमौ प्रियया सुमुखो यथा समदहंसयुवा सिकतास्थले ॥२॥ विषहते स्म वियोगविष क्षणं विरहिणोरिव रात्रिषु पक्षिणोः । प्रियवधूवरयोर्वरयोस्तयोर्न हृदयं हृदयङ्गमचेष्टयोः ॥३॥ न विससर्ज ततः स्वपतेर्गृह स्वगृह एव रुरोध वधू प्रभुः । रहसि दुर्लभमाप्य मनीषितं न हि विमुञ्चति लब्धरसो जनः ॥४॥ सुमुखमुख्यवधूजनेमुख्यतां समधिगम्य नि वरवधूरतिगौरवमाप सा न सुलभं सुमुखे किमु भर्तरि ।।५।। अवततार कदाचिदचिन्तितो निधिरिवोरुतपोनिधिरञ्चितः । नृपगृहं वरधर्ममुनिहानतिथिरेति हि भरिशुभोदये ॥६॥ परमदर्शनशुद्धि विशुद्धधीरधिकबोधविबुद्धपदार्थकः ।
व्रतसुगुप्तिसमित्यतिशुद्धतामयचरित्रपवित्रितविग्रहः ।।७॥ अथानन्तर खिले हुए कमल वनका स्पर्श करनेवाली सुगन्धित वायुने स्पर्श कर जिसका समस्त श्रम दूर कर दिया था ऐसे उस मिथुनने उस समय परस्परका आलिंगन अत्यन्त ढीला कर दिया ॥१॥ जिसपर तरंगोंके समान कोमल सिकुड़नें उठ रही थीं तथा जिसपर फूलोंका समूह मसला गया था ऐसी शय्यापर सोकर उठा सुमुख, प्रिया वनमालाके साथ उस तरह सुशोभित हो रहा था जिस तरह कि बालूके स्थलपर हंसीके साथ मदोन्मत्त युवा हंस सशोभित होता है ॥२॥ जिस प्रकार रात्रिके समय बिछुड़नेवाले चकवा-चकवीका हृदय क्षण-भरके लिए भी वियोगरूपी विषको सहन नहीं करता है उसी प्रकार मनोहर चेष्टाके धारक उन प्रिय वधू-वरका हृदय क्षणभरके लिए भी वियोगरूपी विषको सहन नहीं करना चाहता था ॥३॥ इसलिए राजा सुमुखने वधू-वनमालाको उसके पतिके घर नहीं भेजा अपने ही घर रोक लिया सो ठीक ही है क्योंकि दुर्लभ वस्तुको पाकर उसका रस प्राप्त करनेवाले उसे छोड़ते नहीं हैं |४|| सुन्दरी वनमाला, अपने . उत्तम गुणोंसे राजा सुमुखकी समस्त मुख्य स्त्रियोंमें मुख्यताको पाकर परम गौरवको प्राप्त हुई थी सो ठीक ही है क्योंकि भर्ताके अनुकूल रहनेपर कौन-सी वस्तु सुलभ नहीं ? ॥५॥
तदनन्तर किसी समय अचिन्तित निधिके समान उत्कृष्ट तपके भाण्डार वरधर्म नामके पूज्य मुनि राजा सुमुखके घर आये सो ठीक ही है क्योंकि अत्यधिक पुण्यका उदय होनेपर ही अतिथि घर आते हैं ॥६॥ उन मुनिको बुद्धि उत्कृष्ट दर्शनविशुद्धिसे विशुद्ध थी, अधिक ज्ञानसे वे अनेक पदार्थोंको जानते थे, व्रत गुप्ति और समितिकी अतिशय शुद्धिरूपी चारित्रसे उनका शरीर पवित्र था, वे अनशन तथा स्वाध्याय आदि तपकी निर्मल लक्ष्मीसे युक्त थे और धवल
१. महता । २. हृदयङ्गमा मनोज्ञा चेष्टा ययोस्तयोः । ३. अनुकूले ।
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