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पञ्चदशः सर्गः
अथ तया स खगेन्द्रयुवान्यदा कमलयेव च खेचरकन्यया । परमभूतिविवाहविधानतः सममयोजि' निजैर्जनतानतः ॥३॥ अनुबभूव सुखं चिरमेतया मदनभावविलाससमेतया । सुरतनाटकभूमिविनीतया मदननर्तकसूरिविनीतया ॥३४॥ सुरवधूवरसुन्दरकन्दरे परमवल्लभया सह मन्दरे । सुरभिदेवतरूमतचन्दने चिरमरंस्त तया सह नन्दने ॥३५॥ स कुलशैलसरःसरितां तया सह तटेषु सरागमतान्तया। रतिमवाप कदाचन कान्तया तरुषु भोगभुवामपि कान्तया ॥३६॥ स्थितिमितं विजयाईगिरी पुरे रणितदिव्यवधूपदनूपुरे । भुवि यदन्यसुदुर्लममर्थितं भजति तत्तदयत्नसमर्पितम् ॥३७॥ अथ स वीरक ईश्वरवञ्चितः प्रियतमाविरहाशिवं चितः । क्वचिदियाय शुचा मृदुपल्लवे शिशिरतल्पतलेऽस्तविपल्लवे ॥३८॥ न समशीशमदस्य शशी करैः हृदयदाहममा हिमशीकरैः। निशि सदा विहगस्य वियोगिनः ससरसोऽपि यथा भुवि योगिनः ॥३९॥ स विनिगृह्य चिराद्विरहव्यथां रतिरहस्यगृहाश्रममाश्रमम् ।
जिननिदेशितमासृतवान् वशी स हि परं शरणं शरणार्थिनाम् ॥१०॥ तदनन्तर जनसमूहके द्वारा नमस्कृत उस विद्याधर युवाको, उसके कुटुम्बीजनोंने वैभव पूर्ण विवाहकी विधिसे लक्ष्मीको तुलना करनेवाली विद्याधर-कन्या मनोरमाके साथ युक्त किया ||३३|| विवाहके बाद कुमार आर्य, कामजनित हाव-भावोंसे सहित कामदेवरूपी नतंकाचार्यके द्वारा शिक्षित एवं सुरतरूपो नाटककी रंगभूमिमें लायी हुई इस मनोरमाके साथ सुखका उपभोग करने लगा ॥३४॥ कभी वह देव दम्पतियोंसे सुन्दर कन्दराओंसे युक्त मन्दर गिरिपर इस परम वल्लभाके साथ क्रीड़ा करता था तो कभी सुगन्धित देवदारु और चन्दनके ऊँचे-ऊंचे वृक्षोंसे सुशोभित नन्दन वनमें इसके साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहता था ॥३५॥ कभी वह कुलाचलोंके पद्म आदि सरोवरों और गंगा आदि महानदियोंके तटोंपर तथा कभी भोगभूमिके वृक्षोंके नीचे खेदरहित सुन्दरो वल्लभाके साथ राग-सहित रति-क्रीड़ाको प्राप्त होता था ॥३६|| इस प्रकार विजयाध पर्वतपर रहनेवाला वह युगल, दिव्य स्त्रियोंके पदनूपुरोंको झनकारसे युक्त अपने नगरमें उस सुखका उपभोग करता था जो पृथिवीपर दूसरे मनुष्योंके लिए इच्छा करनेपर भी दुर्लभ था और उसे बिना ही प्रयत्नके प्राप्त था ॥३७॥
अथानन्तर-राजा सुमुखके द्वारा ठगा हुआ वीरक सेठ, प्रियतमा-वनमालाके विरहमें शोकके कारण कहीं भी हृदयको शान्तिको प्राप्त नहीं होता था। यहाँ तक कि जिसपर विपत्तिका एक अंश भी नहीं था ऐसे कोमल-पल्लवोंसे रची हुई शीतल शय्यापर भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता था ॥३८॥ वह विरह-ज्वाला शान्त करनेके लिए रात्रिके समय खुली चाँदनीमें सरोवरके तटपर जा बैठता था पर वहाँपर भी चन्द्रमा बर्फके कणोंके साथ-साथ अपनी किरणोंसे उसके हृदयकी दाहको शान्त नहीं कर पाता था। वह विरही चक्रवाक पक्षीके समान सदा विरहकी दाहमें झुलसता ही रहता था ॥३९।। तदनन्तर उस वीरकने चिरकाल बाद विरहकी व्यथाको १. नपतिना समयोजि विधानतः ङ । २. सरागम् अतान्तया इति च्छेदः। अतान्तया - अश्रान्तया इति घपुस्तके टिप्पणम् । ३. तत्तदयत्नसमर्पितम् ङ. । ४. न्नसिवंचितः म., चितो हृदयस्य शिवं सुखं न इयाय । ५. नियोगिनः म.। ६. सुसरसोऽपि म. । सरोवरसहितस्यापि । ७.-माश्रितवान म.।
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