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हरिवंशपुराणे
इत्थं राजा मधौ मासे जाते जनमनोहरे । बभ्रे वनविहाराय मनो मदनविभ्रमम् ||२७|| कृतमण्डनमारूढो द्विपेन्द्रं कृतमण्डनः । अखण्डमण्डलेाभच्छत्रच्छन्नार्कमण्डलः ॥ २८ ॥ पूर्यमाणः पुरो निर्यंन् नृपैरोधैरिवोदधिः । राजा राजपथं भेजे वन्दिवृन्दस्तुतोऽन्यदा ॥२९॥ वसन्तमिव साक्षात् तं वसन्तं हृदि संततम् । दिदृक्षुः क्षुभिता मङ्क्षु पौरनारीजनाततिः ॥३०॥ वर्धस्व जय नन्देति कृतनादा कृताञ्जलिः । भूपरूपं पपौ सैषा नेत्राअलिमिराकुला ॥३१॥ तत्र स्त्रीजनमध्यस्थामेकामत्यन्तहारिणीम् । रतिं साक्षादिव प्राप्तामद्राक्षीद् वनितां नृपः ॥३२॥ मुखेन्द नेत्रयुग्माब्जे बिम्बोष्ठे कम्बुकण्ठके । स्तनचक्रे कृशे मध्ये गम्भीरे नामिमण्डले ||३३|| सुधने जघने तस्या नितम्बे सकुकुन्दरे । उरुजानुलसज्जङ्घापाणिपादे पदे पदे ॥ ३४॥ लोलां निपतितां दृष्टिं मनसाधिष्ठितां निजाम् । न शशाकोपसंहर्त्तुमतिरक्तो नरेश्वरः ||३५|| दध्यौ वधूरियं कस्य रूपपाशेन मे मनः । बद्ध्वा मुग्धमृगीनेत्रा समाकर्षति हर्षिणी ॥ ३६ ॥ यदीयं नानुभूयेत मया हृदयहारिणी । ततो व्यर्थ ममैश्वयं रूपं च नवयौवनम् ॥ ३७ ॥ लोकोऽयमेकतो भूयात्सर्वदा दुर्व्यतिक्रमः । अभिलाषोऽन्यदारेषु दुःसहोऽयमथैकतः ||३८|| इति ध्यायन्मनश्चक्रे स तस्याहरणे नृपः । अपवादो हि सह्येत रक्तेन न मनोव्यथा ॥ ३९ ॥ यशः प्रकाशमानोऽपि लोकज्ञः सोऽत्यमुद्यत । तमः पतनकाले हि प्रभवत्यपि भास्वतः ॥४०॥
इस प्रकार मनुष्यों के मनको हरण करनेवाले चैत्रमासके आनेपर राजा सुमुखने कामविलास से परिपूर्ण अपने मनको वन-विहार के लिए उद्यत किया ||२७|| तदनन्तर किसी दिन, जिसने नाना प्रकारके आभूषण धारण किये थे, अपने अखण्डमण्डलवाले देदीप्यमान छत्रसे जिसने सूर्य के मण्डलको आच्छादित कर दिया था, जो सजाये हुए हाथीपर आरूढ़ हो नगरसे बाहर निकल रहा था, जिस प्रकार नदियोंके प्रवाह आकर समुद्र में मिलते हैं उसी प्रकार अनेक राजा आकर जिसके साथ मिल रहे थे तथा बन्दीजनोंके समूह जिसकी स्तुति कर रहे थे ऐसा राजा सुमुख राजमार्गको प्राप्त हुआ ||२८-२९ || साक्षात् वसन्तके समान हृदयमें निरन्तर वास करनेवाले राजा सुमुखको देखनेके लिए इच्छुक नगरकी स्त्रियां शीघ्र ही क्षोभको प्राप्त हो गयीं ||३०|| 'हे राजन् ! वृद्धिको प्राप्त होओ, जयवन्त रहो, और समृद्धिमान् हो' जो इस प्रकार शब्द कर रही थीं, हाथ जोड़े हुई थीं तथा बड़ों आकुलताका अनुभव कर रही थीं, ऐसी नगरकी स्त्रियोंने नेत्ररूपी अंजलियोंके द्वारा राजा सुमुखके सौन्दयंका पान किया ||३१|| राजा सुमुखने उन स्त्रियों के मध्य में स्थित एक अत्यन्त सुन्दर स्त्रीको देखा। वह स्त्री ऐसी जान पड़ती थी मानो साक्षात् रति ही आ पहुँची हो ||३२|| अतिशय रागको प्राप्त हुआ राजा, उसके मुखचन्द्र, नेत्र कमल, बिम्बके समान लाल-लाल ओठ, शंखतुल्य कण्ठ, स्तनचक्र, पतली कमर, गम्भीर नाभिमण्डल, सुन्दर जघन, गर्तविशेषसे सुशोभित नितम्ब, जांघों -घुटनों, पिंडरियों-हाथ एवं पैरों पर पद-पदमें पड़ती हुई अपनी मनोयुक्त चंचल दृष्टिको संकुचित करनेके लिए समर्थ नहीं हो सका ||३३-३५ ।। वह विचार करने लगा कि यह भोली-भाली हरिणीके समान नेत्रोंवाली हर्षसे भरी किसको स्त्री रूपपाशसे मेरे मनको बाँधकर खींच रही है || ३६ || यदि मैं इस हृदयहारिणी स्त्रीका उपभोग नहीं करता हूँ तो मेरा यह ऐश्वर्य, रूप एवं नवयौवन व्यर्थ है ||३७|| जिसका सर्वदा उल्लंघन करना कठिन है ऐसा यह लोक तो एक ओर है और जिसका सहन करना अतिशय कठिन है ऐसी परस्त्री-विषयक अभिलाषा एक ओर है ||३८|| इस प्रकार विचार करते हुए राजा सुमुखने उसके हरण करनेमें मन लगाया सो ठीक ही है क्योंकि रागी मनुष्य अपवादको तो सह सकता है परन्तु मनकी व्यथाको नहीं सह सकता ||३९|| आचार्य कहते हैं कि देखो राजा सुमुख यशसे प्रकाशमान था तथा लोक व्यवहारका ज्ञाता था फिर भी अत्यन्त मोहको
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