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चतुर्दशः सर्गः
२२५ आह चात्यनुकूलस्तमित्यसौ प्रणतः प्रभो । वनमालां सुकण्ठे ते पश्यायैव मया कृताम् ॥६॥ स्वं मजनविधिं सद्यः भुक्तिं च भज पूर्ववत् । दिव्यानुलेपनश्लक्ष्णवस्त्रताम्बूलमाल्यकम् ॥६८॥ इति विज्ञापितो नत्वा प्रज्ञानेत्रेण मन्त्रिणा । कर्तुमैच्छत्तदुद्दिष्टं द्विष्टभुक्तिरपि प्रभुः ॥६९॥ विज्ञाय सुमुखाकृतं कृपयेव विमाकरः । प्रतीचीमगमच्छीघ्रमुपसंहृतदीधितिः ॥७॥ प्रौढेऽस्ताभिमुखे ध्वस्तप्रतापे मित्रमण्डले । सोद्यमोऽप्यमवल्लोको निखिलः स्खलितोद्यमः॥७१॥ दष्टिरश्मिभिराकृष्य चक्रवाकैर्धतो यथा । तदा कथमपि प्रायात् शनैर्भानुरदृश्यताम् ॥७२॥ संध्यारागेग चच्छन्नं भुवनं तदनन्तरम् । वनमालानुरागेण सुमुखस्येव भूरिणा ॥७३॥ संकोचः पद्मखण्डानां ततोऽभूत्खण्डितौजसाम् । मित्रोदयोदयाः के वा मित्रापदि विकासिनः ॥४॥ संध्यारागानुसंधाने ध्वान्तेनापि कृते बमौ । मुक्तरक्ताम्बरं गूढं जगन्नीलपटेन वा ॥७५॥ लब्धो वर्णविवेको न 'लब्धवर्णैरपि क्षणम् । प्रदोषे विषमे काले तिमिरोपप्लुतैस्तदा ॥७६॥
मान लिया सो ठोक ही है क्योंकि मन्त्री अत्यन्त निकटवर्ती आपत्तियोंको ही दूर करते हैं ॥६६।। मन्त्रीने अत्यन्त अनुकल एवं विनम्र होकर कहा कि हे प्रभो! मैं प्रयत्न करता हूँ आप वनमालाको आज ही अपने कण्ठ में लगो देखिए ॥६७॥ आप पहले की भांति शीघ्र ही स्नान कीजिए, भोजन कीजिए, दिव्य विलेपन, सुकोमल वस्त्र, पान तथा माला आदि धारण कीजिए ॥६८॥ यद्यपि राजाको वनमालाके बिना भोजन करना इष्ट नहीं था तथापि बुद्धिरूपी नेत्रको धारण करनेवाले मन्त्रीने जब नमस्कार कर प्रार्थना की तब उसने उसके कहे अनुसार सब कार्य करनेकी इच्छा की ॥६९।।
तदनन्तर सुमुखका अभिप्राय जानकर दयासे ही मानो सूर्य अपनी किरणोंको संकचित कर पश्चिम दिशाकी ओर चला गया ॥७०।। जिस समय अतिशय प्रतापी मित्रमण्डल-सूर्यमण्डल (मित्रोंका समूह ) प्रताप-रहित हो अस्त होने लगा उस समय समस्त उद्यमी मनुष्य भी उद्यमरहित हो गये । भावार्थ-जिस प्रकार समर्थ मित्रोंके समूहको नष्टप्रताप एवं नाशके सम्मुख देखकर उसके अनुगामी अन्य लोग पुरुषार्थहीन हो जाते हैं उसी प्रकार प्रतापी सूर्यको भी नष्टप्रताप एवं अस्त होनेके सम्मुख देख दूसरे उद्यमी मनुष्य भी उद्यम रहित हो गये-दिनभर काम करनेके बाद सन्ध्याके समय विश्रामके लिए उद्यत हुए ॥७१।। उस समय सूर्य धीरे-धीरे किसी तरह अदृश्यताको प्राप्त हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो चक्रवाक पक्षियोंने उसे अपनी दृष्टि रूपी रस्सियोंसे खींचकर रोक ही रखा था ॥७२॥ तदनन्तर जिस प्रकार राजा सुमुखका अन्तःकरण वनमालाके अनुरागसे व्याप्त था उसी प्रकार समस्त संसार सन्ध्याकालकी लालीसे व्याप्त हो गया।७३।। तत्पश्चात् जिनका तेज खण्डित हो गया था ऐसे कमलोंका समूह भो संकोचको प्राप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि मित्र ( सूर्य पक्षमें मित्र) के उदयकालमें अभ्युदयको प्राप्त होनेवाले ऐसे कौन हैं जो मित्रकी विपत्तिके समय विकसित ( पक्षमें हर्षित ) रह सकें ? ||७४॥ धोरे-धीरे अन्धकारने भी जब सन्ध्या-कालिक लालिमाकी खोज की तब संसार लाल वस्त्रको छोडकर नील-वस्त्रसे आच्छादित हो गया ।। भावार्थ-सन्ध्याको लालीको दूर कर उसके स्थानपर अन्धकारने अपना अधिकार जमा लिया जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो संसारने लाल वस्त्र छोड़कर नीला वस्त्र ही धारण कर लिया हो ॥७५।। जिस प्रकार प्रदोष-दोषपूर्ण विषम कालमें मोहरूपी अन्धकारसे आच्छादित हुए विद्वान् मनुष्य भी ब्राह्मणादि वर्गों का विवेक नहीं प्राप्त करते हैं-वर्णभेदको भूल जाते हैं उसी प्रकार उस प्रदोष-रात्रिके प्रारम्भ रूप विषम कालमें अन्धकारसे उपद्रत विद्वान मनुष्य भो-लाल-पीले आदि वर्गों के भेदको नहीं प्राप्त कर सके थे-उस समय सब पदार्थ एक वर्ण-काले-काले ही दिखाई
१.विदद्धिरपि ।
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