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हरिवंशपुराणे धर्मार्थकाममोक्षेषु यथेष्टमनुरागिणः । जनाः सन्ततमारेभुनिःप्रत्यूहसमोहिताः ॥१३७॥ अवाग्विसर्गमन्येषां पूर्वधर्मफलं प्रभुः । श्रिया स दर्शयन् केषां नाभूधर्मस्य देशकः ॥१३८॥
शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् धर्मस्याचरितस्य पूर्वजनने मार्गे जिनानां महान्
माहात्म्येन सपौरुषः सुखनिधिोकैककल्पद्रुमः । सम्यग्दर्शनरत्नरञ्जितमनोवृत्तिर्मनश्चक्रभृत्
चक्रे शक्रनिभः श्रियात्र भरतः शार्दूलविक्रीडितम् ॥१३९॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती भरतदिग्विजयवर्णनो
नाम एकादशः सर्गः।
लक्ष्मीको तिरस्कृत करनेवाले थे और जो नित्य एवं अखण्डित पौरुषको धारण करनेवाले थे ऐसे स्वयम्भूपुत्र सोलहवें कुलकर भरत महाराज जब भरत क्षेत्र सम्बन्धी छह खण्डोंकी भूमिका नीतिपूर्वक शासन करते थे तब धर्म, अर्थ, काम और मोक्षमें यथेष्ट अनुराग रखनेवाले लोग निर्विघ्न रूपसे निरन्तर आनन्दका उपभोग करते थे ॥१३५-१३७॥ जो अपनी लक्ष्मीके द्वारा बिना वचन बोले ही अन्य मनुष्योंके लिए पूर्वजन्ममें किये हुए धर्मका फल दिखला रहे थे ऐसे भरत महाराज किनके लिए धर्मके उपदेशक नहीं थे । भावार्थ-उनकी अनुपम विभूतिको देखकर लोग अपने आप समझ जाते थे कि यह इनके पूर्वकृत धर्मका फल है इसलिए सबको धर्म करना चाहिए ॥१३८॥ इस प्रकार पूर्वजन्ममें आचरण किये हुए धर्मके माहात्म्यसे जो स्वयं अतिशय महान थे. पौरुषसे यक्त थे, सुखके भाण्डार थे, लोगोंके लिए कल्पवक्षस्वरूप थे, सम्यग्दर्शनरूपी रत्नसे रंजित मनोवृत्तिसे युक्त थे, और लक्ष्मीसे इन्द्रके समान थे ऐसे चक्रवर्ती भरत, सिंहको चेष्टाके समान सुदृढ़ मनको जिनमार्गमें लीन रखने लगे ॥१३९।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें
भरतकी दिग्विजयका वर्णन करनेवाला ग्यारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥११॥
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