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द्वादशः सर्गः चकार वन्दनां गत्वा चक्री भर्तुरनारतम् । स त्रिषष्टिपुराणानि शुश्राव च सविस्तरम् ॥१॥ चतुर्विंशतितीर्थेश वन्दनाथं शिरःस्पृशम् । अचीकरदसौ वेश्मद्वारे वन्दनमालिकाम् ॥२॥ अदृष्टपूर्वतीर्थेशाः प्रविष्टाः समवस्थितिम् । कदाचिञ्चक्रिया साद्धं विवर्द्धनपुरोगमाः ॥३॥ क्लिष्टाः स्थावरकायेष्वनादिमिथ्यात्वदृष्टयः । दृष्ट्वा भगवतो लक्ष्मी राजपुत्राः सुविस्मिताः ॥४॥ अन्तर्मुहूर्तकालेन प्रतिपन्नसुपंयमाः। त्रयोविंशान्यहो चित्रं शतानि नवभिर्बभुः ॥५॥ तान् प्रशस्य ततश्चक्री शासनं च जिनेशिनाम् । नत्वेशं साधुसंधं च विवेश मुदितः पुरीम् ॥६॥ शनैर्याति ततः काले साम्राज्ये लोकपालिनः । चतुर्वर्गोंचितज्ञानजलक्षालितचेतसः ॥७॥ ततः स्वयंवरारम्भे प्राप्ते भूचरखे बरे । वृते मेघेश्वरे धीरे सुसुलोचनया तया ॥८॥ युद्धे बैद्वेऽर्ककीतौ च मुक्के च कृतपूजने । अकम्पनसुताभर्त्ता पूजितश्वक्रवर्तिना ॥९॥ स हास्तिनपुराधीशः प्रासादस्थोऽन्यदा वृतः । स्त्रीभिः खे खेचरं यान्तं खेचर्या वीक्ष्य मूच्छितः ॥१०॥
अथानन्तर चक्रवर्ती भरत समवसरणमें जाकर निरन्तर भगवान् वृषभदेवको नमस्कार करते थे और त्रेसठ शलाकापुरुषोंके पुराण विस्तारके साथ सुनते थे ।।१।। उन्होंने चौबीस तीथंकरोंकी वन्दनाके लिए अपने महलोंके द्वारपर शिरका स्पर्श करनेवाली वन्दनमालाएं बँधवायी थीं। भावार्थ-चक्रवर्ती भरतने अपने महलोंके द्वारपर रत्ननिर्मित चौबीस घण्टियोंसे सहित ऐसी वन्दन-मालाएं बँधवायी थीं जिनका निकलते समय शिरसे स्पर्श होता था। घण्टियोंको आवाज सुनकर भरतको चौबीस तीर्थंकरोंका स्मरण हो आता था जिससे वह उन्हें परोक्ष नमस्कार करता था ॥२॥ किसी समय चक्रवर्ती के साथ विवर्द्धन कुमार आदि नो सौ तेईस राजकुमार भगवान्के समवसरण में प्रविष्ट हुए। उन्होंने पहले कभी तीर्थकरके दर्शन नहीं किये थे। वे अनादि मिथ्यादृष्टि थे और अनादि कालसे ही स्थावर कापोंमें जन्ममरण कर क्लेशको प्राप्त हुए थे। भगवान्की लक्ष्मी देखकर वे सब परम आश्चर्यको प्राप्त हुए और अन्तर्मुहूर्तमें ही उन्होंने संयम प्राप्त कर लिया ॥३-५|| चक्रवर्तीने उन सब कुमारोंकी तथा जिनेन्द्रदेवके शासनकी प्रशंसा की और अन्तमें वे श्रीजिनेन्द्र भगवान् तथा मुनिसंघको नमस्कार कर प्रसन्न होते हुए अयोध्या नगरीमें प्रविष्ट हुए ॥६॥
तदनन्तर धीरे-धीरे समय व्यतीत होनेपर लोगोंकी रक्षा करनेवाले एवं चतुर्वर्गके वास्तविक ज्ञानरूपी जलसे प्रक्षालित चित्तके धारक महाराज भरतके साम्राज्यमें सर्वप्रथम स्वयंवर प्रथाका प्रारम्भ हुआ। स्वयंवर मण्डपमें अनेक भूमिगोचरो तथा विद्याधर इकट्ठे हुए। बनारसके राजा अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाने हस्तिनापुरके राजा सोमप्रभके पुत्र मेघेश्वर जयकुमारको वरा। अर्ककीति और जयकुमारका युद्ध हुआ जिसमें जयकुमारने अर्ककीर्तिको बाँध लिया। पश्चात् अकम्पनकी प्रेरणासे जयकुमारने अर्ककीर्तिको छोड़ दिया एवं उसका सस्कार किया और चक्रवर्तीने सुलोचनाके पति जयकुमारका सत्कार किया ॥७-९॥
तदनन्तर किसी समय हस्तिनापुरका राजा जयकुमार स्त्रियोंसे घिरा महलकी छतपर बैठा था कि आकाशमें जाते हुए विद्याधर और विद्याधरीको देखकर अकस्मात् मूच्छित हो १. तीर्थेशं वन्दनाथ म.। २. विवद्धनकुमारप्रभृतयः ९२३ भरतपुत्राः अनादिमिथ्यादृष्टयः सर्वतः पूर्व भगवतो वैभवं दृष्ट्रा संयम स्वीचक्ररिति कथासारः । ३. बद्धे च की च म.। ४ विद्याधर्या सह ।
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