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हरिवंशपुराणे वलितास्फोटिताटोपं नानाकरणकौशलम् । मल्लयुद्धमभूत्पश्चाद् रङ्गभूमौ चिरं तयोः ॥८॥ पादावष्टम्मसंभिन्नहृदया युध्यमानयोः । तयोभियेव वैरयो ररास वसुधावधूः ॥८५॥ भरतं भुजयन्त्रेण दयावान् भुजविक्रमी। निरुद्धयोरिक्षप्य संतस्थे रत्नशैलमिवामरः ॥८६॥ प्रेक्षकैः सुरसंघातैः खेचरैरपि भूचरैः । अहो वीर्यमहो धैर्य साधु साध्विति वर्णितम् ॥७॥ साधु संसाध्य मुक्तेन भरतेन रुषा ततः । अपमृत्यु स्मृतं चक्रं सहस्रारं स्थितं करे ॥१८॥ रक्ष्यं यक्षसहस्रेण सहस्रकिरणप्रभम् । प्रभ्राम्य चक्रमुन्मुक्तं वधार्थ भ्रातुरुन्मुखम् ॥८९॥ चरमोत्तमदेहस्य तस्याशक्त विनाशने । देवताधिष्ठितं चक्रं त्रिःपरीत्यागतं पुनः ॥१०॥ ज्येष्ठभ्रातरमालोक्य निघृणं भुजविक्रमी । कर्णौ पिधाय हस्ताभ्यां निनिन्द श्रियमित्यसौ ॥९॥ स्वच्छानामनुकलानां संहतानां नृचेतसाम् । विपर्यासकरी लक्ष्मी धिक पद्धिमिवाम्भसाम् ॥९॥ मधुरस्निग्धशीलानां चिरस्थस्नेहहारिणीम् । चलाचलारिमका पिक धिग् पन्त्रमूर्तिमिव श्रियम् ॥१३॥
सर्वतोऽपि सुदुःप्रेक्ष्यां नरेन्द्राणामपि स्वयम् । दृष्टिं दृष्टिविषस्येव धिक् धिग् लक्ष्मी भयावहाम् ॥९॥ उस समय दोनों ही भाई एक दूसरेपर अपनी भुजाओंसे लहरें उछाल-उछालकर दुःसह आघात कर रहे थे । परन्तु इस युद्ध में भी बड़े भाई भरत हार गये ||८३॥ तदनन्तर दोनोंका रंगभूमिमें चिरकाल तक मल्लयुद्ध हुआ। उनका वह मल्लयुद्ध तालोंकी फटाटोपसे युक्त था तथा नाना प्रकारके पैंतरा बदलनेकी चतुराईसे पूर्ण था ॥८४|| उस समय युद्ध करते हए दोनों वरोंके पदाघातसे जिसका हृदय फट गया था ऐसी पृथिवीरूपी स्त्री भयसे ही मानो चिल्ला उठी थी॥८५।। अन्तमें दयावान् बाहुबली अपने भुजयन्त्रसे भरतको पकड़कर तथा ऊपरकी ओर उठाकर इस प्रकार खड़े हो गये मानो कोई देव रत्नोंके पर्वतको उठाकर खड़ा हो ॥८६॥ देखनेवाले देवोंके समूह, विद्याधरों तथा भूमिगोचरी मनुष्योंने उसी समय जोरसे यह शब्द किया कि अहो ! वीर्यम्-आश्चर्यकारी शक्ति है, अहो! धैर्यम्-आश्चर्यकारी धैर्य है, साधु-साधु-ठीक है, ठीक है आदि ।।८७॥ तदनन्तर अच्छी तरह जीतकर जब बाहुबलीने भरतको छोड़ा तब उन्होंने क्रोधके कारण अपमृत्यु करनेवाले सुदर्शनचक्रका स्मरण किया और स्मरण करते ही हजार अरोंको धारण करनेवाला सुदर्शनचक्र उनके हाथमें आकर खड़ा हो गया ।।८८॥ एक हजार यक्ष जिसकी रक्षा कर रहे थे तथा जो सूर्यके समान देदीप्यमान प्रभाका धारक था ऐसे सुदर्शनचक्रको उन्होंने ऊपरकी ओर घुमाकर भाईको मारनेके लिए छोड़ा ॥८९॥ परन्तु वह देवाधिष्ठित चक्र चरमोत्तम शरारक धारक बाहबलीके मारने में असमर्थ रहा इसलिए उनकी
मर्थ रहा इसलिए उनकी तीन प्रदक्षिणाएं देकर वापस आ गया ॥९०॥ तदनन्तर बाहुबली बड़े भाईको निर्दय देख हाथोंसे कान ढंककर लक्ष्मीकी इस प्रकार निन्दा करने लगे ॥२१॥ जिस प्रकार कीचड़ स्वच्छ, अनुकूल, एवं मिले हुए जलको विपरीतमलिन कर देती है उसी प्रकार यह लक्ष्मी स्वच्छ, अनुकूल और मिले हुए मनुष्योंके चित्तको विपरीत कर देती है अतः इसे धिक्कार हो ॥९२॥ जिस प्रकार यन्त्र-मूर्ति-( कोल्हू ) मधुर एवं चिक्कण स्वभाववाले तिलहनोंके दीर्घकालिक स्नेह-तेलको हर लेती है तथा अत्यन्त अस्थिर होती है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी मधुर एवं स्नेहपूर्ण स्वभाववाले मनुष्योंके चिर-कालिक स्नेह-प्रियको नष्ट कर देती है एवं अत्यन्त अस्थिर है अतः इसे धिक्कार हो ॥१३॥ जिस प्रकार दृष्टिविष सर्पकी दृष्टि नरेन्द्र-विषवैद्योंके लिए भी सब ओरसे स्वयं अत्यन्त दुःखसे देखनेके योग्य तथा भय उत्पन्न करनेवाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी नरेन्द्र-राजाओंके लिए भी सब ओरसे अत्यन्त दुःप्रेक्ष्य-दुःखसे देखने योग्य तथा भय उत्पन्न करनेवाली है इसलिए इसे
१. वरणे म.।
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