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एकादशः सर्गः
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मलदो भार्गवश्वामी प्राच्यां जनपदाः स्थिताः । बागमुक्तश्च वैदर्भाः माणवः सककापिराः ॥६९।। मूलकाश्मकदाण्डीककलिङ्गासिङ्ककुन्तलाः । नवराष्ट्रो माहिषकः पुरुषो भोगवर्धनः ॥७०।। दाक्षिणात्या जनपदा निरुच्यन्ते स्वनामभिः । माल्यकल्लीवनोपान्तदुर्गसूर्पारकबुकाः ॥११॥ काक्षिनासारिकागर्ताः ससारस्वततापसाः । माहेभो मरुकरछश्च सुराष्ट्रो नर्मदस्तथा ॥७२॥ एते जनपदाः सर्वे प्रतीच्या नाममिः स्मृताः । दशार्णकेति किष्कन्धस्त्रिपुरावर्त्तनैषधाः ॥७३॥ नेपालोत्तमवर्णश्च वैदिशान्तपकौशलाः । पत्तनो विनिहात्रश्च विन्ध्यापृष्ठनिवासिनः ॥७४॥ भद्रवत्सविदेहाश्च कुशभङ्गाश्च सैतवाः । वज्रखण्डिक इत्येते मध्यादेशाश्रित। मताः ॥७५॥ देशानेताननुज्ञातान् गुरुणा भरतानुजाः । दारानिव विधेयांश्च मुमुचुस्ते मुमुक्षवः ।।७६॥ अथ बाहुबली चक्रे चक्रेशं प्रत्यवस्थितिम् । संदधानो मनश्चक्रे चक्रेलातमये यथा ॥७७।। भवतो न भुजिष्योऽहमिति प्रेष्य वचोहरान् । पोदनान्निययौ योद्धुमक्षोहिण्या युतो द्रुतम् ।।७८॥ चक्रवर्त्यपि संप्राप्तः सैन्यसागररुद्ध दिक् । विततापरदिग्भागे चम्वोः स्पर्शस्तयोरभूत् ॥७९।। उभये मन्त्रिणो मन्त्र मन्त्रयित्वाहुरीशयोः । माभूजनपदक्षयो धर्मयुद्धमिहास्त्विति ॥४०॥ प्रतिपद्य वचस्तौ तद दृष्टियुद्धं प्रचक्रतुः । चिरं निमेषमुक्ताक्षौ दृष्टौ खे खेचरामरैः ॥८॥ कनिष्ठोऽत्राजयज्ज्येष्ठं पञ्चचापशतोच्छितिम् । ऊर्ध्वदृष्टिमधोदृष्टिस्तदुच्चैः पञ्चविंशतिः ।।८२।। ततोऽन्योन्यभुजक्षिप्ततरङ्गाधातदुःसहम् । जलयुद्धमभूद्रौद्रं सरस्यत्र जितोऽग्रजः ।।८३॥
मलद और भार्गव, ये देश पूर्व दिशामें स्थित थे। बाणमुक्त, वैदर्भ, माणव, सककापिर, मूलक, अश्मक, दाण्डोक, कलिंग, आंसिक, कुन्तल, नवराष्ट्र, माहिषक, पुरुष और भोगवर्धन, ये दक्षिण दिशाके देश थे । माल्य, कल्लीवनोपान्त, दुर्ग, सूर्पार, कर्बुक, काक्षि, नासारिक, अगतं, सारस्वत, तापस, महिम, भरुकच्छ, सुराष्ट्र और नर्मद, ये सब देश पश्चिम दिशामें स्थित थे। दशार्णक, किष्कन्ध, त्रिपुर, आवर्त, नैषध, नेपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अन्तप, कौशल, पत्तन और विनिहात्र, ये देश विन्ध्याचलके ऊपर स्थित थे ।।६८-७४॥ भद्र, वत्स, विदेह, कुश, भंग, सैतव और वज्रखण्डिक, ये देश मध्यदेशके आश्रित थे ॥७५।। पिता-भगवान वषभदेवके द्वारा दिये हए इन सब देशोंको मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले भरतके छोटे भाइयोंने स्त्रियोंके समान छोड़ दिया साथ ही उन्होंने आज्ञाकारी सेवकोंका भी परित्याग कर दिया ||७६||
अथानन्तर कुमार बाहुबलीने भरतके प्रति अपनी प्रतिकूलता प्रकट की। उन्होंने उनके सुदर्शनचक्रको अलातचक्रके समान तुच्छ समझा और 'मैं आपके आधीन नहीं हूँ' यह कहकर दूत भेज दिये तथा वे शीघ्र ही अक्षौहिणी सेना साथ ले युद्ध के लिए पोदनपुरसे निकल पड़े ||७७-७८|| इधर सेनारूपी सागरसे दिशाओं को व्याप्त करते हुए चक्रवर्ती भरत भी आ पहुंचे जिससे वितता नदीके पश्चिम दिग्भागमें दोनों सेनाओंकी मुठभेड़ हई ॥७९॥ तदनन्तर दोनों राजाओंके मन्त्रियोंने परस्पर सलाह कर कहा कि देशवासियोंका क्षय न हो इसलिए दोनों ही राजाओंमें धर्मयुद्ध हो ।।८०॥ भरत और बाहुबलीने मन्त्रियोंकी यह बात मानकर सर्वप्रथम दृष्टियुद्ध शुरू किया और आकाशमें खड़े हुए देव और विद्याधरोंने दोनोंको चिरकाल तक टिमकाररहित नेत्रोंसे युक्त देखा । अर्थात् दोनों भाई चिरकाल तक टिमकाररहित नेत्रोंसे खड़े रहे और कोई किसीसे हारा नहीं। परन्तु अन्तमें छोटे भाईने बड़े भाईको हरा दिया क्योंकि बड़े भाई पांच सौ धनुष ऊँचे थे इसलिए उनकी दृष्टि ऊपरको ओर थी और छोटे भाई उनसे पचीस धनुष ऊँचे थे इसलिए उनकी दृष्टि नीचेको ओर थी॥८१-८२॥ दृष्टियुद्धके बाद दोनों भाइयोंका तालाबमें भयंकर जलयुद्ध हुआ। १. 'गुरुस्तु गीष्पती श्रेष्ठे गुरौ पितरि दुर्भरे' इति विश्वः ख., घ.। २. तथा ख , घ.। ३. दासः । ४. विनतापर -ङ. ।
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