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हरिवंशपुराणे महाप्रभावसंपन्नास्तत्र शासनदेवताः । नेमुश्चाप्रतिचक्राद्या वृषभं धर्म चक्रिणम् ॥२२२॥
शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् तस्थुर्दक्षिणतो जिनस्य मुनयः कल्पाङ्गनाश्चार्यिकाः
ज्योतिय॑न्तरभावनामरवधूवर्गाः क्रमेणैव हि । भयोभावनभोमदेवनिवहा ज्योतिष्ककल्पाः नृपाः
. तिर्यञ्चश्च पृथक् पृथक् पृथुनिजस्थाने गणा द्वादश ॥२२३॥ त्रैलोक्ये जिनशासनोरुपदवीशुश्रषयावस्थिते
संपृष्टः प्रथमेन तत्र गणिना विश्वार्थविद्योतनः । भूयोभेदविवृत्तयाधरपेरिस्पन्दोज्झितस्वात्मना
मोहध्वान्तमपाकरोदथ जिनो भानुः स्वभाषाश्रिया ॥२२४॥
इत्वरिष्टनेमि पराणसंग्रह हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती ऋषभनाथकैवल्योत्पत्तिवर्णनो
नाम नवमः सर्गः।
और चार निकायके देव यथास्थान आसीन हुए ॥२२१।। उस समवसरणमें महाप्रभावसे सम्पन्न अप्रतिचक्र आदि शासन देवता, धर्मचक्रके धारक भगवान् वृषभदेवको निरन्तर नमस्कार करते रहते थे ॥२२२।। समवसरणमें बारह सभाएँ थीं उनमें भगवानकी दाहिनी ओरसे लेकर १ मनि. २ कल्पवासिनी देवियाँ, ३ आर्यिकाएँ, ४ ज्योतिषी देवोंकी देवियाँ, ५ व्यन्तर देवोंकी देवियाँ, ६ भवनवासी देवोंकी देवियाँ, ७ भवनवासी देव, ८ व्यन्तर देव, ९ ज्योतिषी देव, १० कल्पवासी देव, ११ मनुष्य और १२ तिर्यञ्च ये बारह गण पृथक्-पृथक् अपने-अपने विस्तृत स्थानोंपर बैठे थे ।।२२३।। अथानन्तर जब तीन लोकके जीव भगवान्का दिव्य उपदेश सुननेकी इच्छासे शान्तिपूर्वक बैठ गये तब प्रथम गणधरने समस्त पदार्थों के प्रकाशित करनेवाले जिनेन्द्ररूपी सूर्यसे प्रश्न किया और उन्होंने नाना भेदोंमें परिवर्तित होनेवाली एवं ओठोंके परिस्पन्दसे रहित अपनी दिव्य ध्वनिरूपी लक्ष्मीके द्वारा मोहरूपी अन्धकारको नष्ट कर दिया ॥२२४॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे सहित जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें श्रीवत्पमनाथ भगवान्की केवलज्ञानकी उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला
नवाँ पर्व समाप्त हुआ।
१. भौम म, । २. पतिस्यन्दोज्झितः स्वात्मना म., परिरुपन्दोज्झितास्यात्मना क., ड. ।
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