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हरिवंशपुराणे कोव्यः षड्विंशतिर्यस्मिन् पदानां सुप्रतिष्ठिताः । कल्याणनामधेयं तत् पूर्वमन्वर्थनामकम् ॥१५॥ ज्योतिर्गणस्य संचारं त्रिषष्टिपुरुषाश्रितम् । सुरासुरेन्द्र कल्याणं वर्णयस्वतिविस्तरम् ।।११।। स्वप्नान्तरिक्षमौमाङ्गस्वरव्यञ्जनलक्षणम् । छिन्नमित्यष्टधामिनं निमित्तं शाकुनं तथा ॥११७॥ यस्त्रयोदशकोटीभिः पदानां समधिष्ठितम् । प्राणावायाख्यपूर्व तत्प्रणीतं द्वादशं परम् ॥११॥ यत्र कायचिकित्सादिरायुर्वेदोऽष्टधोदितः । प्राणापानविभागादिभूतकर्मविधिस्तथा ॥११॥ क्रियाविशालपूर्व तु नवकोटीपदात्मकम् । छन्दःशब्दादिशास्त्राणि तत्र शिल्पकला गुणाः ॥२०॥ पञ्चाशत्पदलक्षाभिः कोव्यो द्वादश यत्र तु । पूर्व चतुर्दशे लोकबिन्दुसारे हि तत्र च ॥१२१॥ अङ्कराशिविधिश्चाष्टव्यवहारविधिस्तथा । परिकर्मविधिः प्रोक्तः समस्तश्रुतसंपदा ॥१२२॥ जलस्थलगताकाशरूपमायागता पुनः । चूलिका पञ्चधान्वर्थसंज्ञा भेदवती स्थिता ॥१२॥ द्रिकोव्यौ नवलक्षाश्च नवाशीतिसहस्रकैः । द्वे शते पदसंख्यानां पञ्चानां च पृथक पृथक् ॥१२॥ चतुर्दशप्रकारं स्यादङ्गबाह्यं प्रकीर्णकम् । ग्राह्य प्रमाणमेतस्य प्रमाणपदसंख्यया ॥१२५।। अष्टावक्षरकोव्यस्तु लक्षकाष्टसहस्रकैः । शतं च पञ्चसप्तत्या'तत्रेषोऽक्षरसंग्रहम् ॥१२६॥ त्रयोदशसहस्राणि पञ्चशत्येकविंशतिः । कोटो च पदसंख्येयं वर्णाः सप्तव वणिताः ॥१२७।। पञ्चविंशतिलक्षाश्च त्रयस्त्रिंशत् शतानि च । अशीतिः श्लोकसंख्येयं वर्णाः पञ्चदशात्र च ॥१२८॥ तत्र सामायिकं नाम शत्रमित्रसुखादिषु । रागद्वेषपरित्यागात्समभावस्य वर्णकम् ॥१२॥
आदि पांच सौ महाविद्याएँ कही गयी हैं ॥११४|| जिसमें छब्बीस करोड़ पद प्रतिष्ठित हैं ऐसा ग्यारहवाँ कल्याणवाद नामका पूर्व है। यह सार्थक नामधारी है और सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी देवोंके संचार तथा सुरेन्द्र, असुरेन्द्रकृत वेसठ शलाकापुरुषोंके कल्याणका विस्तारके साथ वर्णन करता है । साथ ही इसमें १ स्वप्न, २ अन्तरिक्ष, ३ भौम, ४ अंग, ५ स्वर, ६ व्यंजन, ७ लक्षण और ८ छिन्न इन अष्टांग निमित्तों और अनेक शकुनोंका भी वर्णन है ॥११५-११७॥ जो तेरह करोड़ पदोंसे सहित है वह प्राणावाय नामका बारहवां पूर्व है ॥११८॥ इसमें काय-चिकित्सा आदि आठ प्रकारके आयुर्वेदका तथा प्राणापान आदिके विभाग और उनकी पार्थिवी आदि धारणाओंका वर्णन है ॥११९॥ तेरहवां नौ करोड़ पदोंसे सहित क्रियाविशाल नामका पूर्व है। इसमें छन्दःशास्त्र, व्याकरण-शास्त्र तथा शिल्पकला आदि अनेक गुणोंका वर्णन है ॥१२०॥ और जिसमें बारह करोड़ पचास लाख पद हैं ऐसा चौदहवां लोकबिन्दुसार नामक पूर्व है। इसमें समस्त श्रुतरूपी सम्पदाके द्वारा अंकराशिकी विधि, आठ प्रकारके व्यवहारकी विधि तथा परिकमकी विधि कही गयी है ।।१२१-१२२॥ पहले बारहवें दृष्टिवाद अंगके पांच भेदोंमें एक चूलिका नामक भेद बता आये हैं वह जलगता, स्थलगता, आकाशगता, रूपगता और मायागताके भेदसे पांच प्रकारकी है । चूलिकाके ये समस्त भेद सार्थक नामवाले हैं और इनमें प्रत्येकके दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सो पाँच पद हैं ॥१२३-१२४। इस प्रकार अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञानका वर्णन किया, अब अंगबाह्यश्रुतका वर्णन करते हैं
अंगबाह्यश्रुत सामायिक आदिके भेदसे चौदह प्रकारका है, यह प्रकोणकश्रुत कहलाता है और इसका प्रमाण, प्रमाणपदको संख्यासे ग्रहण करना चाहिए ॥१२५॥ अंगबाह्य श्रुतज्ञानके समस्त अक्षरोंका संग्रह आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर प्रमाण है ॥१२६॥ इसके समस्त पदोंका जोड़ एक करोड़ तेरह हजार पांच सौ इक्कोस पद तथा शेष सात अक्षर प्रमाण है ॥१२७|| और इसके समस्त श्लोकोंकी संख्या पचीस लाख तीन हजार तीन सौ अस्सी तथा शेष पन्द्रह अक्षर प्रमाण है ॥१२८॥ उन चौदह प्रकीर्णकोंमें पहला सामायिक नामका
१. तत्रैकोऽक्षर म..
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