________________
१९६
हरिवंशपुराणे क्षयोपशमभावे च श्रुताधरणकर्मणः । मतिपूर्व परोक्षं स्यादनन्तविषयं श्रुतम् ॥१४॥ इन्द्रियानिन्द्रियोत्थं स्यान्मतिज्ञानमनेकधा । परोक्षमर्थसानिध्ये प्रत्यक्षं व्यावहारिकम् ॥१४५॥ क्षयोपशमसापेक्षं निजावरणकर्मणः । अवग्रहहावायाख्याधारणातश्चतुर्विधः ॥१४॥ इन्द्रियानिन्द्रियः षड्भिश्चत्वारोऽवग्रहादयः । भवन्ति गुणिता भेदाश्चतुर्विंशतिरेव ते ॥१७॥ शब्दगन्धरसस्पर्शग्यअनावग्रहैर्युताः । चाष्टाविंशतिरुक्तास्ते द्वात्रिंशन्मूलभङ्गकैः ॥१४॥ बतायः षभिरभ्यस्तास्ते त्रयो राशयश्चतुः । चत्वारिंशं शेतं चाष्टाषष्टिः वानवतं शतम् ।। १४९।। अभ्यस्ताः सेतरैस्तैस्तैरष्टाशीतं शतद्वयम् । षट्त्रिंशत् त्रिशती च स्यादशीस्यासौ चतुर्युता ॥१५॥ मतिज्ञानविकल्पोऽयं तावत्स्वावृतिकर्मणः । क्षयोपशमभेदेन मिद्यमानः सुदृष्टिषु ।।१५१॥ देशप्रत्यक्षमुद्भूतो जीवशुद्धौ विधावधि । देशः सर्वश्च परमः पुद्गलावधिरिष्यते ॥१५२॥ देशप्रत्यक्षमेव स्यान्मनःपर्यय इत्यपि । विपुलर्जुमतिप्रख्यः सोऽवधेः सूक्ष्मगोचरः ।।१५३॥ सर्वप्रत्यक्षसत्यं स्यात्केवलावरणक्षयात् । अक्षयं केवलज्ञानं केवलं विश्वगोचरम् ॥१५४॥
है ।।१३९-१४३।। यह श्रुतज्ञान, श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होता है, मतिज्ञानपूर्वक होता है, परोक्ष है और अनन्त पदार्थोंको विषय करनेवाला है ।।१४४||
पांच इन्द्रियों तथा मनसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। यह मतिज्ञान अनेक प्रकारका है एवं परोक्ष है। यदि पदार्थों के सान्निध्यमें होता है तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाता है ॥१४५॥ यह मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखता है तथा अवग्रह ईहा अवाय और धारणाके भेदसे चार प्रकारका है ॥१४६॥ अवग्रह आदि चारों भेद पांच इन्द्रिय और मन इन छहके द्वारा होते हैं इसलिए चारमें छहका गुणा करनेसे मतिज्ञानके चौबीस भेद होते हैं ॥१४७।। इन चौबीस भेदोंमें शब्द, गन्ध, रस और स्पर्शसे होनेवाले व्यंजनावग्रहके चार भेद मिलानेसे मतिज्ञानके अट्ठाईस भेद हो जाते हैं और इन अट्ठाईस भेदोंमें अवग्रह आदि चार मूलभेद मिला देनेसे बत्तीस भेद हो जाते हैं। इस प्रकार चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस भेद हो जाते हैं। इस प्रकार चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीसके भेदमें मतिज्ञानके भेदोंकी प्रारम्भमें तीन राशियां होती हैं। उनमें क्रमसे बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुव इन छह पदार्थों का गुणा करनेपर एक सौ चवालीस, एक सौ अड़सठ तथा एक सौ बानबे भेद होते हैं । यदि बहु आदि छह तथा इनसे विपरीत एक आदि छह इन बारह भेदोंका उक्त तीन राशियोंमें क्रमसे गुणा किया जावे तो दो सौ अठासी, तीन सौ छत्तीस और तीन सौ चौरासी भेद होते हैं ॥१४८-१५०॥ मतिज्ञानके ये विकल्प मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशममें भेद होनेसे प्रकट होते हैं तथा सम्यग्दष्टि जीवोंके होते हैं। मिथ्यादष्टि जीवोंका म कुमतिज्ञान कहलाता है ॥१५१॥ अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे जीवमें शुद्धि होनेपर देशावधि, सर्वावधि और परमावधि यह तीन प्रकारका अवधिज्ञान होता है। यह अवधिज्ञान देश-प्रत्यक्ष है तथा पुद्गल द्रव्यको विषय करता है ॥१५२॥ मनःपर्यय ज्ञान भी देशप्रत्यक्ष ही है । इसके विपुलमति और ऋजुमतिके भेदसे दो भेद हैं तथा यह अवधिज्ञानकी अपेक्षा सूक्ष्म पदार्थको विषय करता है। अवधिज्ञान परमाणुको जानता है तो यह उसके अनन्तवें भाग तकको जान लेता है ॥१५३।। अन्तिम ज्ञान केवलज्ञान है यह केवलज्ञानावरणकर्मके क्षयसे होता है, सर्व प्रत्यक्ष है, अविनाशी है और समस्त पदार्थों को जाननेवाला है ॥१५४॥
१. चतुश्चत्वारिंश शतं १४४ । २. उभयदोपकमिदम् । ३. शतं चाष्टाषष्टिः १६८ । ४. १९२ । ५. जीवसिद्धी म.। ६. विधिः म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org