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हरिवंशपुराणे श्रुतं च स्वसमासेन पर्यायोऽक्षरमेव च । पदं चैव हि संघातः प्रतिपत्तिरतः परम् ॥१२॥ अनुयोगयुतं द्वारैः प्राभृतप्राभृतं ततः । प्राभृतं वस्तु पूर्व च भेदान् विंशतिमाश्रितम् ॥१३॥ श्रतज्ञानविकल्पः स्यादेकहस्वाक्षरात्मकः । अनन्तानन्तभेदाणुपुद्गकस्कन्धसंचयः ॥१४॥ अनन्तानन्तमागैस्तु मिद्यमानस्य तस्य च । भागः पर्याय इत्युक्तः श्रुतभेदो घनल्पशः ॥१५॥ सोऽपि सूक्ष्मनिगोदस्यालब्धपर्याप्तदेहिनः । संमवी सर्वथा तावान् श्रुतावरणवर्जितः ॥१६॥ सर्वस्यैव हि जीवस्य तावन्मात्रस्य नावृतिः । आवृतौ तु न जीवः स्यादुपयोगवियोगतः ॥१७॥ जीवोपयोगशक्तश्च न विनाशः सयुक्तिकः । स्यादेवात्यभ्ररोधेऽपि सूर्याचन्द्रमसोः प्रभा ॥१८॥ पर्यायानन्तभागेन पर्यायो युज्यते यदा। स पर्यायसमासः स्यात् श्रुतभेदो हि सावृतिः ॥१९॥ अनन्तासंख्यसंख्येयभागवृद्धिक्षयान्वितः। संख्येयासंख्यकानन्तगुणवृद्धि क्रमेण च ॥२०॥ स्यात्पर्यायसमासोऽसौ यावदक्षरपूर्णता । एकैकाक्षरवृद्धया स्यात् तत्समासः पदावधिः ॥२१॥ पदमर्थपदं ज्ञेयं प्रमाणपदमित्यपि । मध्यमं पदमित्येवं त्रिविधं तु पदं स्थितम् ॥२२॥ एकद्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्ताक्षरमर्थवत् । पदमाद्यं द्वितीयं तु पदमष्टाक्षरात्मकम् ॥२३॥
जो रागादिक दोष तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन आवरणोंसे रहित हो ॥११॥ श्रुतज्ञानके १ पर्याय.२ पर्याय-समास.३ अक्षर, ४ अक्षर-समास, ५ पद.६ पद-समास. ७ संघात, समास, ९ प्रतिपत्ति, १० प्रतिपत्ति-समास, ११ अनुयोग, १२ अनुयोग-समास, १३ प्राभृत-प्राभृत, १४ प्राभृत-प्राभृत-समास, १५ प्राभृत, १६ प्राभृत-समास, १७ वस्तु, १८ वस्तु-समास, १९ पूर्व और २० पूर्व-समास-ये बीस भेद हैं ॥१२-१३॥ श्रुतज्ञानके अनेक विकल्पोंमें एक विकल्प एक ह्रस्व अक्षर रूप भी है। इस विकल्पमें द्रव्यकी अपेक्षा अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओंसे निष्पन्न स्कन्धका संचय होता है ॥१४॥ इस एक ह्रस्वाक्षररूप विकल्पके अनेक बार अनन्तानन्त भाग किये जावें तो उनमें एक भाग पर्याय नामका श्र तज्ञान होता है ॥१५॥ वह पर्याय ज्ञान सूक्ष्मनिगोदिया लब्धपर्याप्तक जीवके होता है और श्रुतज्ञानावरणके आवरणसे रहित होता है ॥१६॥ सभी जीवोंके उतने ज्ञानके ऊपर कभी आवरण नहीं पड़ता। यदि उसपर भी आवरण
ड़ जावे तो ज्ञानोपयोगका सर्वथा अभाव हो जायेगा और ज्ञानोपयोगका अभाव होनेसे जीवका भी अभाव हो जायेगा ॥१७॥ यह युक्तिसे सिद्ध है कि जीवकी उपयोग शक्तिका कभी विनाश नहीं होता। जिस प्रकार कि मेघका आवरण होनेपर भी सूर्य और चन्द्रमाको प्रभा कुछ अंशोंमें प्रकट रही आती है उसी प्रकार श्रु तज्ञानका आवरण होनेपर भी पर्याय नामका ज्ञान प्रकट रहा आता है ॥१८॥ जब यही पर्यायज्ञान पर्याय ज्ञानके अनन्तवें भागके साथ मिल जाता है तब वह पर्याय-समास नामका श्रुतज्ञान कहलाने लगता है । यह श्रुतज्ञान आवरणसे सहित होता है अर्थात् जबतक पर्याय-समास नामक श्रु तज्ञानावरणका उदय रहता है तबतक प्रकट नहीं होता उसका क्षयोपशम होनेपर ही प्रकट होता है ॥१९॥ यह पर्याय-समासज्ञान अनन्तभागवृद्धि, असंख्यभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि तथा अनन्तभागहानि, असंख्यातभागहानि एवं संख्यातभागहानिसे सहित हैं। पर्यायज्ञानके ऊपर संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे वृद्धि होते-होते जबतक अक्षरज्ञानको पूर्णता होती है तबतकका ज्ञान पर्याय-समासज्ञान कहलाता है। उसके बाद अक्षरज्ञान प्रारम्भ होता है उसके ऊपर पदज्ञान तक एक-एक अक्षरकी वृद्धि होती है। इस वृद्धि प्राप्त ज्ञानको अक्षर-समास ज्ञान कहते हैं। अक्षर-समासके बाद पदज्ञान होता है ।।२०-२१॥ अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपदके भेदसे पद तीन प्रकारका है ।।२२।। इनमें एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात अक्षर१. मासृतं म. । २. एकं म., क. ।
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