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हरिवंशपुराणे भावमात्राभ्युपगमैर्विकल्पैरेमिराहतैः । त्रिषष्टिः सप्तषष्टिः स्यादाज्ञानिकमतास्मिका ॥५॥ विनयः खलु कर्तव्यो मनोवाक्कायदानतः । 'पितृदेवनृपज्ञानिबालवृद्धतपस्विषु ॥५९॥ मनोवाकायदानानां मात्राद्यष्टकयोगतः । द्वात्रिंशत्परिसंख्याता वैनयिक्यो हि दृष्टयः ॥६॥ इत्येवं वदतो दृष्टिं दृष्टि वादस्य पञ्च ते । परिकर्मादयो भेदाश्चूलिकान्ता व्यवस्थिताः ।।६।। पञ्चप्रज्ञप्तयः प्रोक्ताः परिकर्मणि ताः पुनः । व्याख्याप्रज्ञप्तिपर्यन्ताश्चन्द्रसूर्यादिनामिकाः ॥६२॥ षट्त्रिंशत्पदलक्षाभिः सहस्त्रैः पञ्चमिः पदैः । चन्द्र प्रज्ञप्तिराचष्टे चन्द्रमोगादिसंपदाम् ॥६३॥ पदानां पञ्चलक्षामिः सहस्रस्त्रिभिरेव च । सूर्यप्रज्ञप्तिराख्याति सूर्यस्त्रीविभवोदयम् ॥६॥ सहस्रः पञ्चविंशत्या लक्षाभिस्तिसृभिः पदैः । जम्बूद्वीपस्य सर्वस्वं तत्प्रज्ञप्तिः प्रभाषते ॥६५॥ पदलक्षा द्विपञ्चाशत् षत्रिंशत्सहस्रकाः । प्रज्ञप्तौ सन्ति यस्यां सा द्वीपसागरवणिनी ॥६६॥ लक्षाश्चतुरशीतिर्या सषत्रिंशत्सहस्रकाः । पदानां प्रवदत्येषा व्याख्याप्रज्ञप्तिरुच्यते ॥६७।। रूपिद्रव्यमरूपं च भव्यामव्यात्मसंचयम् । व्याख्याप्रज्ञप्तिराख्याति समस्तं सा सविस्तरम् ॥६८॥ पदाष्टाशीति लक्षा हि सून्ने चादावबन्धकाः । श्रुतिस्मृतिपुराणार्था द्वितीये सूत्रताः पुनः ॥६२॥ तृतीये नियतिः पक्षश्चतुर्थे समयाः परे । सुत्रिता ह्यधिकारेअपनानाभेदव्यवस्थिताः ॥७॥ पदैः पञ्चसहस्रेस्तु प्रयुक्त प्रथमे पुनः । अनुयोगे पुराणार्थस्त्रिषष्टिरुवार्यते ॥७१।।
चतुर्दशविधं पूर्व गतं श्रुतमुदीर्यते । प्रतिपूर्व च वस्तूनि ज्ञातव्यानि यथाक्रमम् ॥७२॥ १जीवकी सत् उत्पत्तिको जाननेवाला कौन है ? २ जोवकी असत उत्पत्तिको जाननेवाला कौन है ? ३ जीवकी सत्-असत् उत्पत्तिको जाननेवाला कौन है ? और जीवकी अवक्तव्य उत्पत्तिको जाननेवाला कौन है ? केवल भावकी अपेक्षा स्वीकृत इन चार भेदोंके और मिला देनेपर आज्ञानिक मिथ्यादृष्टियोंके सब भेद सड़सठ हो जाते हैं ॥५५-५८॥ १ माता, २ पिता, ३ देव, ४ राजा, ५ ज्ञानी, ६ बालक, ७ वृद्ध और ८ तपस्वी इन आठका मन, वचन, काय और दानसे विनय करना चाहिए । इसलिए मन, वचन, काय और दान इन चारका माता आदि आठके साथ संयोग करनेपर वैनयिक मिथ्यादष्टियों के बत्तीस भेद हो जाते हैं ॥५९-६०। इस प्रकार अनेक मिथ्यादृष्टियोंका कथन करनेवाले दृष्टिवाद अंगके १ परिकर्म, २ सूत्र, ३ अनुयोग, ४ पूर्वगत और ५ चूलिका ये पांच भेद हैं ।।६१॥ परिकर्ममें १ चन्द्रप्रज्ञप्ति, २ सूर्यप्रज्ञप्ति, ३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४ द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति ये पाँच प्रज्ञप्तियाँ कही गयी हैं अर्थात् इन पाँच प्रज्ञप्तियोंकी अपेक्षा परिकर्मके पाँच भेद हैं ।।६२।। इनमें चन्द्रप्रज्ञप्ति छत्तीस लाख पाँच हजार पदोंके द्वारा चन्द्रमाको भोग आदि सम्पदाका वर्णन करती है ।।६३।। सूर्यप्रज्ञप्ति पाँच लाख तोन हजार पदोंके द्वारा सूर्यके स्त्री आदि विभवका निरूपण करती है ॥६४।। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तीन लाख पचीस हजार पदोंके द्वारा जम्बूद्वीपके सर्वस्वका वर्णन करती है ।।६५।। जिसमें बावन लाख छत्तीस हजार पद हैं, ऐसी द्वीप और सागरोंका वर्णन करनेवाली चौथी द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्ति है ॥६६।। जो चौरासी लाख छत्तीस हजार पदोंसे युक्त है वह पांचवीं व्याख्याप्रज्ञाप्त कही जाती है ।।६७|| व्याख्याप्रज्ञप्ति रूपीद्रव्य, अरूपीद्रव्य तथा भव्य-अभव्य जीवोंके समूह आदि सबका विस्तारके साथ वर्णन करती है ॥६८॥ दृष्टिवादके दूसरे भेद सूत्रमें अठासी लाख पद हैं, इसके अनेक भेदोंमें-से प्रथम भेदमें अबन्धक-बन्ध न करनेवाले भावोंका वर्णन है। दूसरे भेदमें श्रुति, स्मृति और पुराणके अर्थका निरूपण है। तीसरे भेदमें नियति पक्षका कथन है और चौथे भेदमें नाना प्रकारके परसमयों-अन्य दर्शनोंका निरूपण है ।।६९-७०।। दृष्टिवादके तीसरे भेद अनुयोगमें पांच हजार पद हैं तथा इसके अवान्तर भेद प्रथमानुयोगमें वेसठ शलाकापुरुषोंके पुराणका वर्णन है ।।७१।। दृष्टिवादका १. माता च पिता च इति पितरौ एकशेषात् मातृपदस्य लोपः । २. ते म. ।
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