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नवमः सर्गः
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धूतासनोऽवधिज्ञानात् तद्बुद्धा धरणः फणी । आजगाम मुनेर्भक्त्या मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥१२९॥ विश्वास्य दिव्यरूपोऽसौ भ्रातरौ भ्रातरौ यथा । महाविद्यां ददौ ताभ्यां विद्यालाभो गुरोर्वशात् ॥३०॥ योऽगो विद्याधराधारो विजयाई इतीरितः । सोऽपि ताभ्यां ततो लब्धः किं न स्याद गुरुसेवया ॥१३॥ स नमिर्दक्षिणश्रेण्यां पञ्चाशनगरेश्वरः । विनमिश्चोत्तरश्रेण्यामभूत् षष्टिपुरेश्वरः ॥१३२॥ अध्यशिष्टन्न मिः श्रेष्टं नगरं रथनूपुरम् । नभस्तिलकमन्वथं विनमिः सह बान्धवैः ।।१३३।। विद्याधरजनो धीरों प्राप्य तौ परमेश्वरी । उपरिस्थितमात्मानं भुवनस्याप्यमन्यत ।।१३।। अथासौ प्रतिमास्थोऽपि प्रविश्य भगवान् स्थितः । परीपहाग्निविध्यापिसद्ध्यानजलधौ स्थिरः ॥१३५॥ मत्वेतरमनुष्याणां भवतां च भविष्यताम् । मोक्षाय विजिगीषणां भुक्त्यभावेऽल्पशक्तिताम् ॥१३६॥ धर्मार्थकाममोक्षेषु धर्मः क्षान्त्यादिलक्षणः । पुरुषार्थः स्थितो मुख्यो मोक्षकामार्थसाधनः ॥१३७॥ प्राणाधिष्टानतन्निष्टं शरीरं धर्मसाधनम् । प्राणरधिष्टितः प्राणी प्राणाश्चान्नैरधिष्टिताः ॥१३८॥ गरम्पर्यण धर्मस्य ततोऽन्नमपि साधनम् । प्राणिनामल्पवीर्याणां प्रधानस्थितिकारणम् ॥१३॥ अतस्तस्यानवद्यस्य ग्रहणे विधिमर्थिनाम् । शासनस्थितयेऽन्नस्य दर्शयामीह भारते ॥१४॥
इति ध्यात्वा स्वयंशक्तः स क्षुधादिविनिर्ग्रहे । परार्थ मतिमाधत्त गोचरान्नपरिग्रहे ॥१४१॥ तथा दुःखमय स्थितिमें स्थित थे, ऐसे नमि और विनमि दोनों राजपुत्र भगवान्के चरणोंमें आ लगे॥१२८।। उसी समय जिसका आसन कम्पायमान हआ था ऐसा धरणेन्द्र अवधिज्ञानसे यह समाचार जान जिनेन्द्रकी भक्तिपूर्वक वहाँ आया, सो ठीक ही है क्योंकि मौन सब कार्योंको सिद्ध करनेवाला है ॥१२९|| दिव्यरूपको धारण करनेवाले उस धरणेन्द्रने उन दोनों भाइयों को अपने भाइयोंके समान विश्वास दिलाकर महाविद्या प्रदान की सो ठीक ही है क्योंकि विद्याकी प्राप्ति गुरुसे ही होती है ॥१३०।। और जो विद्याधरोंका निवासभूत विजयार्ध नामका पर्वत है वह भी उन दोनोंने धरणेन्द्रसे प्राप्त किया सो ठीक ही है क्योंकि गुरुसेवासे क्या नहीं होता है ? ||१३१॥ उनमें तमि दक्षिणश्रेणीके पचास नगरोंका स्वामी हुआ और विनमि उत्तर श्रेणीके साठ नगरोंका अधिपति हुआ ॥१३२॥ नमि अपने बन्धुजनोंके साथ रथनूपुर नामक श्रेष्ठ नगरमें निवास करने लगा और विनमि सार्थक नाम धारण करनेवाले नभस्तिलक नामक नगरमें रहने लगा ॥१३३।। विद्याधर लोग उन धीर-वीर राजाओंको पाकर अपने-आपको संसारसे ऊपर मानने लगे॥१३४।।
अथानन्तर- यद्यपि धीर-वीर भगवान् परोषहरूपी अग्निको बुझानेवाले प्रशस्त ध्यानरूपी सागरमें प्रवेश कर प्रतिमायोगसे विराजमान थे-छह माहसे प्रतिमायोग धारण करनेपर भी आहारके बिना उन्हें कुछ भी आकुलता नहीं थी तो भी 'मोक्ष प्राप्त करनेके लिए कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेको इच्छा करनेवाले जो अन्य मनुष्य वर्तमानमें हैं तथा आगे होंगे आहारके अभावमें उनकी शक्ति क्षीण हो जायेगी' ऐसा मानकर वे विचार करने लगे कि क्षमा आदि लक्षणोंसे युक्त धर्म-पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में मुख्य है, वही मोक्ष, काम और अर्थका साधन है । धर्मका साधन शरीर है और शरीर प्राणोंका आधार होनेसे प्राणोंपर निर्भर है। प्राणी प्राणोंसे अधिष्ठित है अर्थात् प्राणोंके द्वारा जीवित है और प्राण अन्नसे अधिष्ठित हैं अर्थात् अन्नसे ही प्राण सुरक्षित रहते हैं। इसलिए परम्परासे अन्न भी धर्मका साधन है। अल्पशक्तिके धारक मनुष्योंकी स्थिति प्रधान पुरुषार्थ-धर्म में बनी रहे इसमें अन्न भी कारण है। अतः इस भरत क्षेत्रमें शासनको स्थिरताके लिए मैं आहारके इच्छुक मनुष्योंको निर्दोष आहार ग्रहण करनेकी विधि दिखाता हूँ ॥१३५-१४०॥ ऐसा विचारकर, यद्यपि भगवान् क्षुधादिके १. चातुरी म. । २. धरणेन्द्रात् । ३. -मत्यर्थ म. । ४. धीरः म.। ५. स्थिरः म.। ६. विध्यापी । ७. पुरुषार्थस्थितो मोक्षो मुख्यो म.। ८. प्राणस्त्वन्न -म. । ९. परार्थमति म.।
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