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नवमः सर्गः
वारिधारास्फुरद्वाराशुम्भत्कुम्भपयोधरा । तारापुष्पवती रम्या सुनक्षत्रबृहत्फला ॥८३॥ सुनीलघनशाsसौ कुबेरेण सुदर्शना । यौरिवोत्तमयोषेव कौशिकाये प्रदर्शिता ॥ ८४ ॥ अथ विज्ञापितो नाथः सुरनाथेन हर्षिणा । आपृच्छ्य पितृपुत्रादीन् परिवर्गं च संश्रितम् ॥८५॥ गृहीतचामरच्छत्रैः सेव्यमानः सुरेश्वरैः । स द्वात्रिंशत्पदानुर्व्या पद्भ्यामेव प्रचक्रमे ॥ ८६ ॥ लोकाञ्जलिपुटालोकशब्दाशीर्वादवन्दितः । शिविकामारुरोहेशः सवितेवोदयश्रियम् ॥८७॥ क्षितेः क्षितीश्वरोत्क्षिप्तां खमुत्पत्य सुरेश्वराः । संनाहिनः 'समूहुस्तां शिरसाज्ञामिवेशितुः ॥ ८८ ॥ ततः शङ्खाः सभेरीका मुखरीकृत दिङ्मुखाः । दध्वनु वंशवीणाश्च पटहा बहुनिस्वनाः ॥ ८९ ॥ नानानीकैः सुरैरूष्वं चतुरङ्गबलैरधः । राजक्षत्रोग्रभोजाद्यैर्व्रजद्भिर्व्याप्तमीश्वरैः ॥९०॥ ऊर्ध्व नवरसा जाता नृत्यदप्सरसां स्फुटाः । नाभेयेन विमुक्तानामधः शोकरसोऽभवत् ॥९१॥
देदीप्यमान होती है उसी प्रकार वह पालकी भी चित्रा नक्षत्र और ताराके समान प्रकाशसे युक्त थी। जिस प्रकार आकाश ( जगतीजघनस्थला ) पृथिवीरूपी मध्यम स्थलसे सहित होती है और उत्तम स्त्री पृथिवीके समान स्थूल नितम्ब स्थलसे युक्त होती है, उसी प्रकार वह पालकी भी मध्यलोकमें विराजमान थी ||८२॥ जिस प्रकार आकाश ( वारिधारास्फुरद्धाराशुम्भत्कुम्भपयोधरा ) जलसे भरे एवं पड़ती हुई धारोंसे सुशोभित घड़ोंके समान मेघोंसे युक्त होता है और उत्तम स्त्रीके स्तनकलश जलधाराके समान शोभायमान हारसे सुशोभित रहते हैं उसी प्रकार वह पालकी भी जलधाराके समान सुशोभित हारों - मणिमालाओं से अलंकृत घड़ों में जलको धारण करनेवाली थीजलसे भरे घड़ों से युक्त थी । जिस प्रकार आकाश ( तारापुष्पवती रम्या) फूलों के समान ताराओंसे युक्त एवं मनोहर होता है और उत्तम तारोंके समान फूलोंसे युक्त एवं मनोहर रहती है उसी प्रकार वह पालकी भी ताराओंके समान चमकीले फूलोंसे युक्त और मनोहर थी। जिस प्रकार आकाश ( सुनक्षत्रबृहत्फला ) बड़े-बड़े फलोंके समान उत्तम नक्षत्रोंसे युक्त होता है और उत्तम स्त्री अच्छे नक्षत्रों के विशाल परिणामसे सहित होती है उसी प्रकार वह पालकी भी उत्तम नक्षत्रों के समान बड़े-बड़े फलोंसे युक्त थी || ८३ || और जिस प्रकार आकाश ( सुनीलघनकेशा ) केशों के समान अत्यन्त नीले मेघोंसे युक्त रहता है और उत्तम स्त्री अत्यन्त काले एवं सघन केशों से युक्त होती है उसी प्रकार वह पालकी भी सघन केशोंके समान उत्तम नील मणियोंसे खचित थी । ऐसी वह सुदर्शना पालकी कुबेरने इन्द्रके लिए दिखलायी ||८४||
अथानन्तर हर्षसे भरे हुए इन्द्रने पालकीपर सवार होनेके लिए भगवान् से प्रार्थना की । तब भगवान् अपने माता-पिता, पुत्र तथा आश्रित परिजनोंसे पूछकर बत्तीस कदम पृथिवीपर पैदल ही चले । उस समय चमर तथा छत्र लेकर इन्द्र उनकी सेवा कर रहे थे । ८५-८६ ।। तदनन्तर लोगोंने हाथ जोड़कर जय-जयकार करते हुए जिन्हें नमस्कार किया था और माता-पिता आदि गुरुजनोंने जिन्हें आशीर्वाद दिया था ऐसे भगवान् ऋषभदेव पालकीपर उस तरह आरूढ़ हुए जिस तरह कि सूर्य उदयकालीन लक्ष्मीपर आरूढ़ होता है ॥८७॥ उस पालकीको पृथिवीसे तो राजाओंने उठाया पर बादमें तैयार खड़े हुए इन्द्रोंने उसे आकाश में उछलकर इस प्रकार धारण कर लिया जिस प्रकार कि प्रभुकी आज्ञाको शिरसे धारण करते हैं ||८८|| तदनन्तर दिशाओंको मुखरित करनेवाले शंख, भेरी, बाँसुरी, वीणा तथा जोरदार शब्द करनेवाले नगाड़े शब्द करने लगे ||८९|| उस समय ऊपर आकाश तो देवोंकी नाना प्रकारको चतुरंग सेनाओंसे व्याप्त था और नीचे पृथिवीतल साथ-साथ चलनेवाले अनेक राज - क्षत्रियों तथा उग्रवंशी, भोजवंशी आदि राजाओंसे व्याप्त था ||९०|| ऊपर आकाशमें नृत्य करनेवाली अप्सराओंके शृंगारादि नो रस प्रकट हो रहे १. इन्द्राय । २. समायु: म. । ३. किमुक्तानाम् म. ।
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