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नवमः सर्गः
दुःखत्रय महावर्त्त दोषत्रयमहोरगे । भ्रमतां मव भर्तस्त्वं कर्णधारो मवोदधौ ॥ ६८॥ स्वं संसारमहाचक्राद्भ्रमतो वेगशालिनः । उपदेशकरेणाशु विश्वमुत्तारय प्रभो ॥ ६९॥ विश्रमन्वधुना गया सन्तस्त्वदर्शिताध्वना । ध्वस्त जन्मश्रमा नित्यसौख्ये त्रैलोक्यमूर्धनि ॥७०॥ कोर्त्या लौकान्तिकैर्वाचः स्वयंवृद्धस्य तस्य ताः । पूँजार्थमेव संजाताः पत्युरापो यथा ह्यपाम् ॥७१॥ सुत्रामाद्यैश्च संप्राप्तैश्चतुर्विधसुरैर्नतैः । प्रोक्तं लौकान्तिकैः प्राक्तं यत्तदेव मुहुर्मुहुः ॥ ७२ ॥ ऋषभोऽभात् स्वयंव्रुद्धो बोधितो विबुधैः करैः । मानोः प्रबुद्धपद्मौत्रो यथा पद्ममहाहृदः ॥७३॥ धीरपुत्रशतस्यासौ प्रविभक्तवसुंधरः । कृती दशशतस्यैव कराणां रविरावभौ ॥ ७४ ॥ अभिषिक्तस्ततो देवैः क्षीरार्णवजलैर्जिनः । दिग्धो गन्धैर्व रैर्वस्त्रैर्भूषामाल्यैर्विभूषितः ॥ ७५॥ दत्तास्थानो नृपैर्देवैर्वृतोऽसान्मणिभूषणैः । पूर्वापराय तैर्मेरुर्यथाऽसौ कुलभूधरैः ॥ ७६॥ अथ वैश्रवणो दिव्यां निर्ममे शिविकां नवाम् । नाम्ना सुदर्शनां भूरिशोभयाऽपि सुदर्शनाम् ॥ ७७ ॥ ताराभरस्नजातीनां प्रमाभिरतिभास्वरा । मण्डला कृतिशुभ्राभ्रधवलातपवारणा ॥ ७८ ॥
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चिरकालसे जिसकी परम्परा टूट चुकी है ऐसे मोक्षमार्गका आप फिरसे प्रकाश कीजिए || ६७ ॥ हे स्वामिन्! जो जन्म, जरा, मरण इन तीन दुःखरूपी भँवरोंसे युक्त है, तथा राग, द्वेष, मोह ये तीन दोषरूपी बड़े-बड़े सर्प जिसमें निवास कर रहे हैं ऐसे इस संसाररूपी सागर में भ्रमण करनेवाले -- गोता खानेवाले जीवों के लिए आप कर्णधार होइए ||६८|| हे प्रभो ! आप उपदेशरूपी हाथके द्वारा इस वेगशाली घूमते हुए संसाररूपी महाचक्र से सबको उतारो - सबकी रक्षा करो ||६९ || इस समय सत्पुरुष आपके द्वारा दिखलाये हुए मार्गसे चलकर तथा जन्म सम्बन्धी थकावटको दूर कर नित्य सुख से सम्पन्न तीन लोकके शिखरपर विश्राम करें || ७२ || जिस प्रकार समुद्र के लिए चढ़ाया हुआ जल केवल उसकी पूजाके लिए है उसी प्रकार स्वयं ही प्रतिबोधको प्राप्त हुए भगवान् के लिए
कान्तिक देवोंके वचन केवल पूजाके लिए ही थे । भावार्थ - लोकान्तिक देवोंके उपदेशके पहले ही भगवान् विरक्त हो चुके थे इसलिए उनके वचन केवल नियोग पूर्ति के लिए ही थे || ७१ ॥ उसी समय इन्द्रको आदि लेकर चारों निकायके देव आ पहुँचे । उन्होंने भी नमस्कार कर वही कहा जो कि लौकान्तिक देवोंने इनके पूर्व बार-बार कहा था ॥ ७२ ॥ देवोंके द्वारा सम्बोधित स्वयंबुद्ध भगवान् ऋषभदेव, उस समय, जिसका कमल -समूह सूर्यको किरणोंसे खिल उठा है उस महासरोवर के समान सुशोभित हो रहे थे ||७३ || धीर-वीर सौ पुत्रोंके लिए जिन्होंने पृथिवीका विभाग कर दिया था ऐसे कृतकृत्य भगवान् उस समय, एक हजार किरणोंके लिए अपना तेज वितरण करनेवाले सूर्यके समान सुशोभित हो रहे थे ||७४ || तदनन्तर देवोंने क्षोर समुद्रके जलसे जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक किया, उत्तम गन्धसे लेपन किया और उत्तमोत्तम वस्त्र, आभूषण तथा मालाओं से उन्हें विभूपित किया || ७५ || सभा में विराजमान तथा मणिमय आभूषणोंसे विभूषित देव और राजाओंसे घिरे हुए भगवान् उस समय पूर्व-पश्चिम लम्बे कुलाचलोंसे घिरे हुए सुमेरुके समान सुशोभित हो रहे थे ||७६ ||
अथानन्तर कुबेर ने एक नूतन दिव्य पालकी बनायी जो नामकी अपेक्षा सुदर्शना थी और अत्यधिक शोभासे भी सुदर्शना - सुन्दर थी || ७७ || वह पालको आकाश अथवा उत्तम स्त्रीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार आकाश ( ताराभरत्नजातीनां प्रभाभिरतिभास्वरा ) तारा और श्रेष्ठ नक्षत्रों की प्रभासे अतिशय देदीप्यमान होता है, तथा उत्तम स्त्री नेत्रोंको पुतलियों और नक्षत्रोंके समान देदीप्यमान रत्नोंकी प्रभासे उज्ज्वल होती है उसी प्रकार वह पालकी भी ताराओं के समान आभावाले रत्नोंकी प्रभासे अतिशय देदीप्यमान थी। जिस प्रकार आकाश
१. मुत्तरय म. । २. विश्राम म. । ३. नित्यं सौख्ये म । ४. पूर्वार्थमेव म. । ५. सुरैः म । ६. रभून्मणि-म. ।
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