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नवमः सर्गः
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षमिः कर्मभिरासाय सुखितामर्थवत्तया। प्रजाभिस्तत्सुतुष्टाभिः प्रोक्तं कृतयुगं युगम् ॥४०॥ सेन्द्राः सुरास्तदागत्य कृत्वा राज्याभिषेचनम् । नाभेयस्य प्रजानां ते सौस्थित्यं विदधुः परम् ॥४१॥ अयोध्येति विनीतेति विनीतजलसंकुला । साक्रेतेति च विख्याता पुरी रेजे तदाधिकम् ॥४२॥ इक्ष्वाकुक्षत्रियज्येष्ठज्ञातिज्ञा लोकबन्धुना । भूमौ वृषमनाथेन स्थापितास्तेऽत्र रक्षणे ॥४३॥ करवः करुदेशेशो उग्रास्ते चोग्रशासनाः । न्यायेन पालनाद् मोजाः प्रजानामपरे मताः ॥४४॥ राजानश्च तथैवान्ये जाताः प्रकृतिरञ्जनाः । श्रेयःलोमप्रमाद्यैस्तैः कुरुपुत्रैस्तु भूरभात् ॥४५॥ दिव्यान् भोगान् सुरानीतान भुञानस्य जगद्गुरोः । पूर्वलक्षास्त्र्यशीतिश्च जग्मुराजन्मनस्ततः ॥४६॥ सोऽथ नीलाअसां दृष्ट्वा नृत्यन्तीमिन्द्रनर्तकीम् । बोधस्याभिनिबोधस्य निर्विवेदोपयोगतः ॥४७॥ ये रागहेतवो बाह्या भावाः प्रागभवन भुवि । ते स्युरन्तर्निमित्तस्य शमे प्रशमहेतवः ॥४८॥ य एव विषया रम्या मतिविभ्रमकारिणः । प्रशमानुगुणे काले त एव स्युः शमावहाः ॥४९॥ स दध्यौ च स्वयं बुद्धौ व्यावृत्तविषयस्पृहः । चिरं भोगसमासक्त्या लजितात्मात्मनात्मनः ॥५०॥ अहो परमवैचित्र्यं संसारस्य शरीरिणाम् । यत्र कर्मविधेयानामन्ये यान्ति विधेयताम् ॥५५॥ सद्भावं दर्शयन्तीयमतिनृत्यति नर्तकी । हावमावरसप्रायं विचित्राभिनयाङ्गिका ॥५२॥ तोषिते मयि नृत्येन शक्रः स्यात् किल तोषितः । ततस्तु सुखितामेषा संमोहादतिमन्यते ॥५३॥
व्यापारके योगसे वैश्य और शिल्प आदिके सम्बन्धसे शूद्र कहलाये ॥३९।। उस समय असि, मषी आदि छह कर्मों के द्वारा प्रजाने वास्तविक सुख प्राप्त किया और अत्यन्त सन्तुष्ट होकर उसने उस युगको कृतयुग कहा ॥४०॥ उसी समय इन्द्र सहित समस्त देवोंने आकर तथा भगवान् वृषभदेवका राज्याभिषेक कर प्रजाको परम सुखी किया ॥४१॥ उस समय विनयी मनुष्योंसे व्याप्त अयोध्या, विनीता और साकेता नामसे प्रसिद्ध, भगवान्की जन्मपुरी अधिक सुशोभित हो रही थी ॥४२॥ जो इक्ष्वाकु क्षत्रियोंमें वृद्ध तथा जाति व्यवहारके जाननेवाले थे, उन्हें लोकबन्धु भगवान् वृषभदेवने यहाँ रक्षाके कार्यमें नियुक्त किया ॥४३॥ जो कुरु देशके स्वामी थे वे कुरु, जिनका शासन उग्र-कठोर था वे उग्र और जो न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करते थे वे भोज कहलाये ॥४४॥ इनके सिवाय प्रजाको हर्षित करने वाले अनेक राजा और भी बनाये गये । उस समय श्रेयान्स तथा सोमप्रभ आदि कुरुवंशी राजाओंसे यह भूमि अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥४५।। तदनन्तर देवोपनीत दिव्य भोगोंको भोगते हुए भगवान्के जन्मसे लेकर तेरासी लाख पूर्व व्यतीत हो गये ॥४६॥
अथानन्तर किसी समय नत्य करती हई इन्द्रकी नीलांजसा नामक नर्तकीको देख. मतिज्ञानका उस ओर उपयोग जानेसे भगवान ऋषभदेव विरक्त हो गये ॥४७॥ इस संसार में जो पदार्थ पहले रागके कारण थे वे ही पदार्थ अब अन्तरंग निमित्तके शान्त हो जानेपर शान्तिके कारण हो गये ॥४८॥ जो विषय पहले बुद्धिमें विभ्रम उत्पन्न करनेवाले थे वे ही विषय अब शान्तिके अनुकूल समयके आनेपर शान्तिके उत्पादक हो गये ॥४९॥ जिनकी भोगाभिलाषा दूर हो चुकी थी, तथा चिरकाल तक भोगोंमें आसक्त रहने के कारण जिनकी आत्मा स्वयं अपने आपसे लज्जित हो रही थी ऐसे भगवान् वृषभदेव अपने मन में विचार करने लगे कि अहो ! संसारके जीवोंकी बड़ी विचित्रता देखो, इस संसारके जीव स्वयं कर्मोके आधीन हैं और दूसरे जीव उनकी आधीनताको प्राप्त हो रहे हैं ॥५०-५१।। अभिनयके विविध अंगों से युक्त यह नर्तकी समीचीन भावको दिखाती हुई हाव-भाव तथा रसपूर्वक इस अभिप्रायसे अधिक नृत्य कर रही है कि मेरे नृत्यसे भगवान् प्रसन्न होंगे, उनके प्रसन्न होनेपर इन्द्र प्रसन्न होगा और इन्द्रकी प्रसन्नतासे मैं अधिक सुखी हो सकूँगी। १. ज्येष्ठा ज्ञातिज्ञा म., ज्येष्ठज्ञातिना क.। २. कुरुदेशेऽसावुग्रस्ते म.। ३. -रभूत् म.। ४. नीलजसां म.. ५. बोधस्यापि म. । ६. विधीयतां म. । ७. नृत्तेव म.। २२ For Private & Personal Use Only
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