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हरिवंशपुराणे अथान्यदा प्रजाः प्राप्ता नाभेयं नाभिनोदिताः । स्तुतिपूर्व प्रणम्योचुरेकीभूय महातयः ॥२५॥ प्रभो कल्पद्रुमाः पूर्व प्रजानां वृत्तिहेतवः । तेषां परिक्षयेऽभूवन् स्वयंच्युतरसेक्षवः ॥२६॥ दिव्येक्षरसतृप्तानां रक्षितानां वौजसा । प्रजानां नाथ ! दूरेण विस्मृताः कल्पपादपाः ॥२७॥ इदानीं छिन्नभिन्नाश्च न क्षरन्तीक्षवो रसम् । यान्ति कालानुमावेन मृदवोऽपि कठोरताम् ॥२८॥ फलभारवशान्नम्रा दृश्यन्ते तृणजातयः। न विद्मो वयमेतामिः कथमन्नविधिर्भवेत् ॥२९॥ सरमीणां घटोनीनां महिषीणां च संततम् । स्तनेभ्यो प्रक्षरद् मक्ष्यमभक्ष्यं वा तदुच्यताम् ॥३०॥ कण्ठाश्लेषोचिताः पूर्व सिंहव्याघ्रवृकादयः । अस्मानुद्वेजयन्तीशे कुपुत्रा इव सांप्रतम् ॥३१॥ अतः क्षुधामहाग्रस्ता जोवनोपायदर्शनात् । स्वामिन्ननुगृहाणता रक्षणाच्च भयात् प्रजाः ॥३२॥ ततो वीक्ष्य क्षधाक्षीणाः प्रजाः सर्वाः प्रजापतिः । कृत्वातिहरणं तासां दिव्याहारैः कृपान्वितः ॥३३॥ सर्वानुपदिदेशासौ प्रजानां वृत्तिसिद्धये । उपायान् धर्मकामार्थान् साधनान्यपि पार्थिवः ॥३४॥ असिषी कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमित्यपि । षट्कर्म शमेसिद्धयर्थ सोपायमुपदिष्टवान् ॥३५॥ पशुपाल्यं ततः प्रोक्तं गोमहिष्यादिसंग्रहम् । वर्जनं करसत्त्वानां सिंहादीनां यथायथम् ॥३६॥ ततः पुत्रशतेनापि प्रजया च कलागमः । गृहीतः सुगृहीतं च कृतं शिल्पिशतं जनैः ॥३७॥ पुरग्रामनिवेशाश्च ततः शिल्पिजनैः कृताः। सखेटकर्वटाख्याश्च सर्वत्र मरतक्षितौ ॥३८॥ क्षत्रियाः क्षतितस्त्राणाद् वैश्या वाणिज्ययोगतः । शूद्राः शिल्पादिसंबन्धाजाता वर्णास्त्रयोऽप्यतः ॥३९॥
अथानन्तर किसी समय बहुत भारी व्यथासे युक्त समस्त प्रजा, राजा नाभिराजसे प्रेरित हो एक साथ भगवान् वृषभदेवके पास पहुंची और स्तुतिपूर्वक प्रणाम कर कहने लगी ॥२५॥ हे प्रभो! पहले, कल्पवृक्ष प्रजाको आजीविकाके साधन थे, फिर उनके नष्ट होनेपर स्वयं ही जिनसे रस चू रहा था ऐसे इक्षु वृक्ष साधन हुए ॥२६॥ हे प्रजानाथ ! उन दिव्य इक्षु वृक्षोंके रससे प्रजा इतनी सन्तुष्ट हुई और आपके प्रतापने उसकी ऐसो रक्षा की कि उसने कल्पवृक्षोंको दूरसे ही भुला दिया ||२७|| परन्तु इस समय वे इक्षवृक्ष छिन्न-भिन्न होनेपर भी रस नहीं देते हैं सो ठोक ही हैं क्योकि समयके प्रभावसे कोमल भी कठोरताको प्राप्त हो जाते हैं ॥२८॥ यद्यपि फलोंके भारसे झुके हए नाना प्रकारके तण दिखाई देते हैं परन्तु हम लोग नहीं जानते कि इनसे अन्न कैसे प्राप्त किया जाता है ? ॥२९|| घटके समान स्थूल स्तनोंको धारण करनेवाली गायों और भैंसोंके स्तनोंसे भी कुछ झर रहा है सो वह भक्ष्य है या अभक्ष्य यह कहिए ॥३०॥ जो सिंह, व्याघ्र तथा भेड़िया आदि पहले कण्ठालिंगन करनेके योग्य थे हे नाथ ! अब वे हो इस समय कुपुत्रोंके समान हम लोगोंको भयभीत कर रहे हैं ॥३१।। इसलिए हे स्वामिन् ! क्षुधाकी तीव्र बाधासे ग्रस्त इस प्रजाको जीवन निर्वाहके उपाय दिखाकर तथा भयसे उसकी रक्षा कर अनुगृहीत कीजिए ॥३२॥ तदनन्तर दयालु भगवान्ने समस्त प्रजाको भूखसे व्याकुल देख पहले तो दिव्य आहारके द्वारा सबकी पीड़ा दूर की फिर आजीविकाके निर्वाहके लिए सब उपाय तथा धर्म, अर्थ और कामरूप साधनोंका उपदेश दिया ॥३३-३४॥ उन्होंने सुखकी सिद्धिके लिए अनेक उपायोंके साथ असि, मषी, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मोंका भी उपदेश दिया।।३५।। तदनन्तर उन्होंने यह भी बताया कि गाय, भैंस आदि पशुओंका संग्रह तथा उनको रक्षा करनी चाहिए और सिंह आदिक दुष्ट जीवोंका परित्याग करना चाहिए ॥३६॥ तदनन्तर भगवान्के सौ पुत्रों और प्रजाने कला शास्त्र सीखा, एवं लोगोंने सैकड़ों शिल्पी बनाकर उन्हें अपनाया ॥३७|| जिससे शिल्पिजनोंने भरतक्षेत्रको भूमिपर सब जगह गांव, नगर तथा खेट, कर्वट आदिको रचना की ॥३८॥ उसी समय क्षत्रिय, वैश्य . और शूद्र ये तीन वर्ण भी उत्पन्न हुए। विनाशसे जीवोंकी रक्षा करनेके कारण क्षत्रिय, वाणिज्य १. कण्ठाश्लेषोदिताः म.। २. -तीश: म. । ३. संग्रहः म.। ४. क्षततस्त्राणात् म.।
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