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नवमः सर्गः अथेन्द्रेण कराङ्गष्ठे निपिक्तममृतं पिबन् । पित्रोनेत्रामृताहारं वितरन् वर्द्धते जिनः ॥१॥ वृद्धः शीतमयूखस्य बालचन्द्रस्य दर्शनात् । प्रत्यहं वर्द्धमानस्य जगत्प्रमदसागरः ॥२॥ बालक्रीडामृतरसः पीयमानोऽप्यनारतम् । सलभोऽपि विमो भूल्लोकलोचनतृप्तये ॥३॥ कुमारः क्रीडितं चक्रे स शक्रप्रहितैर्हितः । प्रतिबिम्बैरिवात्मीयैहा देवकुमारकैः ॥४॥ मृदुशय्यासनं वस्त्रं भूषणं चानुलेपनम् । भोजनं वाहनं यानं तस्यासीद देवनिर्मितम् ॥५॥ भक्त्या शक्राज्ञया चाभूद् धनदो धनदोऽर्थतः । वयःकालानुरूपेण वस्तुनाऽनुचरन् जिनम् ॥६॥ सहायैः सहजैः स्वच्छैः दिव्यैरिव कलागुणैः । संपूर्णो यौवनेनापि जिनश्चन्द्र इवाबभौ ॥७॥ तुङ्गासौ सांगदौ वृत्तौ सुप्रकोष्ठौ महाभुजौ । परिष्वङ्गाय पर्याप्तौ त्रैलोक्यविपुलश्रियः ॥८॥ श्रीवत्सलक्षणेनोरुवक्षःस्थलमभाद् विभोः । गाढोपगूढराज्यश्रीकुचाग्रोल्पीडितेन वा ॥९॥ सश्लिष्टपदजङ्घोधगूढजानूरुदण्डयोः । वक्षःप्रासादसंस्तम्मस्तम्भयोः श्रीरभूत् परा ॥१०॥ केशकुन्तलमारोऽभानीलो हेमाचलस्य सः । छत्राकारे शिरस्युच्चैरिन्द्रनीलचयो यथा ॥१॥ श्रीललाटस्य नासायाः सुकर्णोत्पलनालयोः । सज्यचापभ्रुवोर्वापि वाचागोचरमत्यगात् ॥१२॥
अथानन्तर इन्द्रके द्वारा हाथके अंगूठेमें स्थापित अमृतको पीते तथा माता-पिताके नेत्रोंके लिए अमृतरूप आहार प्रदान करते हुए भगवान् जिनेन्द्र दिनोंदिन बढ़ने लगे ॥१॥ प्रतिदिन बढ़नेवाले जिन-बालकरूपी चन्द्रमाके देखनेसे संसारके समस्त प्राणियोंका आनन्दरूपी सागर वृद्धिको प्राप्त होने लगा ॥२॥ यद्यपि भगवानका बालक्रीडारूपो अमतरस पिया जाता था और लिए निरन्तर सुलभ भी था तो भी वह मनुष्योंके नेत्रोंकी तृप्ति के लिए पर्याप्त नहीं था। भावार्थ-- भगवान्को बालक्रीड़ा देखकर मनुष्योंके नेत्र सन्तुष्ट नहीं होते थे ॥३॥ जिन-बालक, इन्द्रके द्वारा भेजे हुए, हितकारी एवं अपने ही प्रतिबिम्बके समान दिखनेवाले देव-बालकोंके साथ मनोहर क्रीड़ा करते थे ॥४॥ भगवानका कोमल बिस्तर, कोमल आसन, वस्त्र, आभूषण, अनुलेपन, भोजन, वाहन तथा यान आदि सभी वस्तुएँ देव निर्मित थीं ।।५।। इन्द्रकी आज्ञानुसार अवस्था तथा ऋतुके अनुकूल वस्तुओंसे भक्तिपूर्वक भगवान् की सेवा करनेवाला धनद-कुबेर वास्तवमें ही धनद-धनको देनेवाला था ।।६।। अपने सहज मित्रोंके समान स्वच्छ एक दिव्य कलारूप गुणोंसे युक्त तथा यौवनसे परिपूर्ण जिनेन्द्र चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहे थे ।।७।। ऊँचे कन्धोंसे सुशोभित, बाजूबन्दोंसे युक्त गोल तथा उत्तम कलाइयोंसे सहित उनको दोनों महाभुजाएँ त्रैलोक्यको लक्ष्मीका आलिंगन करने के लिए पर्याप्त थीं ॥८॥ भगवान्का विशाल वक्षःस्थल श्रीवत्स चिह्नसे ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अच्छी तरहसे आलिंगित राज्यलक्ष्मोके स्तनके अग्रभागसे ही पीड़ित हो ।।९|| जिनके पैर और जंघाएँ अच्छी तरह मिली हुई थीं, जिनके घुटने मांसपेशियों में भीतर छिपे हुए थे और जो वक्षःस्थलरूप महलके आधारभूत स्तम्भोंके समान जान पड़ते थे ऐसे उनके दोनों ऊरुओंकी शोभा बहुत चढ़ी-बढ़ी थी॥१०|| भगवान्के छत्राकार शिरपर काले घुघराले बालोंका समूह ऐसा जान पड़ता था मानो सुमेरुके ऊँचे शिखरपर इन्द्रनील मणियोंका समूह ही रखा हो ॥११॥ उनके ललाट, नाक, सुन्दर कानोंपर लगे हुए नील कमलोंकी नाल, और डोरी चढ़े धनुषकी समानता १. वृद्धिंगतः। २. कुमारक्रीडितं म.। ३. हितः म.। ४. कुबेरः । ५. धनदायकः । ६. मारोप-म. । ७. सज्ज -म.।
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