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हरिवंशपुराणे नमस्ते जिनचन्द्राय नमस्ते जिनभानवे । नमस्ते जिनसाय नमस्ते जिनतायिने ॥२२७॥ इति स्तुतिशतैः स्तुत्वा नत्वा शतमखादयः । भक्तिस्त्वय्यस्तु शस्तेति शतशस्तं ययाचिरे ॥२२॥ ततः सरमसोद्यातसरसंघातसेनया। वृतः शेतावरो मेरोरुवाचाल जिनान्वितः ॥२२॥ सवर्णकणिकारोरुराशिपिम्जरविग्रहम् । तमैरावतमारोप्य रौप्याद्रिमिव जङ्गमम् ॥२३॥ तामयोध्या परायोध्या ध्वजमालाविभूषिताम् । वादिध्वनिधीरां स्वामध्यास्य ध्वजिनीमिव ॥२३१॥ पौलोम्या मातुरुरसङ्ग स्थापयित्वा जिनं ततः । जनको प्रणिपत्याशु कृतनेपथ्यविग्रहः ॥२३२॥ नृत्यत्सुराङ्गनोद्भासिमास्वद्भुजवनावृतः । ननर्त्त ताण्डवारम्भचल विश्वम्भरो हरिः ॥२३३॥ चिरं प्रेक्षकयोरग्रे नटिस्वाऽऽनन्दनाटकम् । पित्रोः कृत्वोचितं देवैः सहेन्द्रः स्वास्पद ययौ ॥२३॥ कोट्यस्तिस्रोऽर्द्धकोटी च वसुवृष्टिदिने दिने । मासान् पञ्चदशोत्पत्तेः प्राग जिनस्यापतद्गृहे ॥२३५॥
वसन्ततिलकावृत्तम् प्राप्तोऽभिषेकममरेन्द्र गणेगिरीन्द्रे
प्राप्तः सुतस्विभुवनेश्वर इत्युदारौ । प्राप्तौ महाप्रमदमारवशौ तदानीं
नाभिश्च नामिवनिता च सुखं स्ववेद्यम् ॥२३६॥ नमस्कार हो, आप लोकमें अद्वितीय वीर हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप लोकके विधाता हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥२२६॥ हे जिन ! आप चन्द्रमारूप हो इसलिए आपको नमस्कार हो, हे जिन ! आप सूर्यस्वरूप हो इसलिए आपको नमस्कार हो, हे जिन ! आप सबका हित करनेवाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो और हे जिन ! आप सबकी रक्षा करनेवाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥२२७॥ इस तरह सैकड़ों प्रकारकी स्तुतियोंसे स्तुति कर तथा नमस्कार कर इन्द्र आदि देवोंने उनसे बार-बार यही याचना की कि हे भगवन् ! हमारी उत्तम भक्ति सदा आपमें बनी रहे ॥२२८॥
तदनन्तर शीघ्रगामी देवोंकी सेनासे घिरा हुआ इन्द्र, जिन-बालकको साथ ले मेरु पर्वतसे चला ।।२२९।। सुवर्ण और कनेरके फूलोंकी राशिके समान पीत शरीरके धारक जिन-बालकको चलते-फिरते रजताचलके सदृश ऐरावत हाथीपर सवार कर वह अयोध्याको ओर चला ॥२३०।। जो शत्रुओंके द्वारा अयोध्या थी, ध्वजाओंकी पंक्तियोंसे सुशोभित थी, बाजोंकी ध्वनिसे व्याप्त थी तथा अपनी सेनाके समान जान पड़ती थी ऐसी अयोध्यामें पहुँचकर उसने जिन-बालकको इन्द्राणीके द्वारा माताकी गोदमें विराजमान कराया। तदनन्तर माता-पिताको नमस्कार कर शीघ्र ही सुन्दर वेषभूषासे युक्त हो ताण्डव-नृत्य करना प्रारम्भ किया। उस समय वह इन्द्र, नृत्य करनेवाली देवांगनाओंसे सुशोभित सुन्दर भुजारूपी वनसे घिरा हुआ था और ताण्डव नृत्यके प्रारम्भमें ही उसने पृथिवीको कम्पायमान कर दिया था ॥२३१-२३३।। भगवान्के माता-पिता इस नृत्यके दर्शक थे। उनके आगे चिर काल तक आनन्द नाटकका अभिनय कर तथा यथायोग्य उनका सत्कार कर इन्द्र देवोंके साथ अपने स्थानपर चला गया ।।२३४॥ जिनेन्द्र भगवान्के जन्मसे पन्द्रह माह पूर्व प्रतिदिन उनके पिताके घर साढ़े तीन करोड़ रत्नोंकी वर्षा आकाशसे पड़ती थी ।।२३५।। 'हमारा पुत्र इन्द्रोंके समूह द्वारा सुमेरु पर्वतपर अभिषेकको प्राप्त हुआ है तथा तीनों लोकोंका स्वामी है' यह जानकर उस समय अतिशय उदार राजा नाभिराज और मरुदेवी महान् आनन्दके १. जिनसर्वाय म.। २. इन्द्रः । ३. सुवर्ण च कणिकाराणि च तेषामुरुराशिस्तद्वत् पिञ्जरो विग्रहो यस्य तम् ( क. टि.) । सुवर्णकर्णिकारोहराशि-म.।
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