________________
नवमः सर्गः
१६७
चन्द्रश्चन्द्रिका रात्रौ दिवा दीप्त्या दिवाकरः । मुदे त्रिभुवने न स्यात् तस्य ताभ्यां तयोर्मुखम् ॥३३॥ पुण्डरीकस्य पत्रेण नेत्रे श्रोत्रे सृते ममे । पिण्डालक्तकरक्तं वा हस्तपादतलाधरम् ||१४| शुद्ध मौक्तिकसंघातघटितेव घनद्युतिः । कुन्दधुतिमधाज्जैनी दन्तपंक्तिरदन्तुरा || १५ || सनवव्यन्जनशते सहाष्टशतलक्षणे । पञ्च वापशतोच्छ्राये तथा हेमाद्रिसंनिभे ॥ १६ ॥ रूपशोभासमस्तेयं जिनस्य गदितुं सह । लेशेनापि न सा शक्या शक्रकोटिशतैरपि ॥१७॥ स जगत्त्रयरूपिण्या नन्दया च सुनन्दया । प्रौढयौवनया प्रौढश्चिकीड विधिनोढया ॥१८॥ स गौरीश्यामयोर्मध्ये स्तवकस्तनयोस्तयोः । जगत् कल्पद्रुमोऽभासीलतयोरङ्गलग्नयोः ॥१९॥
कान्ति सा दीप्तिर्न सा संपद् न सा कला । अस्यानयोश्च या नाऽभूत् तत्र सौख्यं किमुच्यताम् ॥ २० ॥ भरतानन्दनं नन्दा नन्दनं चक्रवर्तिनम् । भरताख्यं सुतां ब्राह्मीमपि युग्ममसूत सा ॥२१॥ सुनन्दा बाहुबलिनं महाबाहुबलं सुतम् । तथैव सुषुवे लोके सुन्दरामपि सुन्दरीम् ॥२२॥ अष्टानवतिरस्येति नन्दायां सुन्दराः सुताः । जाता वृषभसेनाद्या वेद्याश्चरमविग्रहाः ॥ २३ ॥ अक्षरालेख्यगन्धर्वगणितादिकलार्णवम् । सुमेधानैः कुमारीभ्यामवगाहयति स्म सः ॥ २४ ॥
करनेवाली भौंहों की शोभा वचन मार्गको उल्लंघन कर चुकी थी || १२|| तीनों लोकोंमें चन्द्रमा अपनी चाँदनीसे रात्रि में ही आनन्द उत्पन्न करता है और सूर्य अपनी दीप्तिसे दिनमें ही लोगोंको आनन्द पहुँचाता है परन्तु भगवान्का मुख दिन-रातके भेदके बिना निरन्तर सबको आनन्द पहुँचाता था अतः वह न तो चन्द्रमाकी चांदनी के समान था और न सूर्यको दीप्तिके ही सदृश था || १३|| उनके कानों तक लम्बे नेत्र कमलपत्र के समान थे और हथेलियाँ पदतल और अधरोष्ठ महावर के रंगके समान लाल थे ||१४|| शुद्ध मोतियोंके समूहसे बनी हुईके समान अत्यन्त चमकदार एवं ऊँचे-नीचे विन्याससे रहित उनकी दांतोंकी पंक्ति कुन्दपुष्पकी शोभा धारण कर रही थी || १५ || नौ सौ व्यंजन, और एक सौ आठ लक्षणोंसे सहित, पाँच सौ धनुष ऊँचे एवं हेमाचलसुमेरुके समान उनके शरीरकी जो शोभा थी उस सबको यदि सैकड़ों करोड़ इन्द्र भी एक साथ कहना चाहें तो भी लेशमात्र नहीं कह सकते ॥ १६-१७॥
जब भगवान् पूर्णं युवा हुए तब तीनों लोकोंको अद्वितीय सुन्दरी प्रौढ़ यौवनवती नन्दा और सुनन्दा के साथ उनका विधिपूर्वक विवाह हुआ और उनके साथ वे क्रीड़ा करने लगे ||१८|| गुच्छोंके समान स्तनोंको धारण करनेवाली उन गौरांगी एवं नवयौवनवती नन्दा और सुनन्दाके बीचमें भगवान् ऐसे जान पड़ते थे मानो अंगमें लगी हुई दो लताओंके बोचमें संसारके कल्पवृक्ष ही हों ||१९|| संसार में न वह कान्ति थी, न दीप्ति थी, न सम्पत्ति थी, और न वह कला ही थी जो भगवान् ऋषभदेव और नन्दा-सुनन्दाको प्राप्त नहीं थी फिर उनके सुखका क्या वर्णन किया जाये ? ||२०|| नन्दाने भरतक्षेत्रको आनन्दित करनेवाले भरत नामक चक्रवर्ती पुत्रको और ब्राह्मी नामक पुत्रीको युगल रूपमें उत्पन्न किया || २१ || और सुनन्दा नामक दूसरी रानीने महाबाहुबलसे युक्त बाहुबली नामक पुत्र तथा संसारमें अतिशय रूपवती सुन्दरी नामक पुत्रीको जन्म दिया ||२२|| भरत और ब्राह्मी के सिवाय भगवान्की सुनन्दा रानीके वृषभसेनको आदि लेकर अंठानबे पुत्र और हुए । उनके ये सभी पुत्र चरमशरीरी थे ||२३|| भगवान् ने अतिशय बुद्धिसे सम्पन्न अपने समस्त पुत्रोंके साथ-साथ ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दोनों पुत्रियोंको भी अक्षर, चित्र, संगीत और गणित आदि कलाओंके सागर में प्रविष्ट कराया था । भावार्थं - अपने समस्त पुत्र-पुत्रियों को उन्होंने विविध कलाओंमें पारंगत किया था ||२४||
१. पात्रेण म. । २. विधिवत्परिणीतया । ३. भरतक्षेत्रजनानन्दनम् । ४. सुष्ठुवे (?) म. । ५. सुमेधावी म. । सुष्टु बुद्धिसंपन्नैः पुत्रः सह (क. टि.) । ६. कुमाराभ्याम् म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org