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अष्टमः सर्गः
श्रीमतामनुरूपं यः परिणाममनुश्रितः । मननात् मनुजार्थस्य मनुसंज्ञामनुश्रितः ॥१॥ प्रक्षीणः कल्पवृक्षारमा मध्येदक्षिणमारतम् । नाभेरपि स एवाभूत् प्रासादः पृथिवीमयः ॥२॥ शातकुम्भमयस्तम्भो विचित्रमणिभित्तिकः । पुष्पविद्रुम मुक्तादिमालाभिरुपशोमितः ॥३॥ सर्वतोभद्रसंज्ञोऽसौ प्रासादः सर्वतो मतः । सैकाशीतिपदः शालवाप्युद्यालाद्यलंकृतः ॥४॥ स्वस्थानमेककोऽनल्पकल्पवृक्षैर्वृतः क्षितौ । अध्यतिष्टदधिष्ठातुः स नाभेरनुभावतः ॥५।। अथ नाभेरभूदेवी मरुदेवीति वल्लमा। देवी शचीव शक्रस्य शुसंतानसंभवा ॥६॥ अभ्युन्नतौ पदाङ्गष्टौ प्रोल्लसन्नखमण्डलौ । यस्या रेजतुरुच्यैव ललाटस्य दिदृक्षया ॥७॥ उन्नताग्रसमस्निग्धतनुताम्रनखांशुभिः । कुट्टिले कुरुतां यस्याः क्रमौ कुरवकश्रियम् ॥८॥ श्लिष्टाङ्गुलिदलौ गूढगुल्फो कान्तिजलप्लवम् । समौ कूर्मोन्नती यत्याः पादपद्मी प्रचक्रतुः ॥९॥ यस्याश्च चरणी चारुमत्स्यशङ्खादिलक्षणौ । क्रीडास्वेव प्रियस्पर्शात्स्वेदसंबन्धसंगिनौ ॥१०॥ आनुपूर्व्यसुवृत्ते च जो रोमशिरोज्झिते । लावण्यरसवर्णाट्ये शरधी पुष्पधन्वनः ॥११॥ जाननी मृदुनी यस्था गूढसंधानवर्तिनी । ददतुः प्रियगात्राणां मदुस्पर्शकृतं सुखम् ॥१२॥ असाराः कदलीस्तम्भाः कर्कशाः करिगां कराः । परिणाहगुणत्वेऽपि यदूर्वोः सशान ते ॥१३॥
अथानन्तर ऊपर जिन नाभिराजका कथन किया गया है वे श्रीमान् पुरुषों के अनुरूप परिणामको प्राप्त थे तथा समस्त पुरुषार्थोंका मनन करनेसे मन कहलाते थे ॥१॥ उस समय दक्षिण भरत क्षेत्रमें कल्पवृक्षरूप प्रासाद अन्यत्र नष्ट हो गये थे परन्तु राजा नाभिराजका जो कल्पवृक्षरूप प्रासाद था वही पृथिवी निर्मित प्रासाद बन गया था ॥२॥ राजा नाभिराजके उस प्रासादका नाम सर्वतोभद्र था, उसके खम्भे स्वर्णमय थे, दीवालें नाना प्रकारकी मणियोंसे निर्मित थीं, वह पुखराज, मूंगा तथा मोती आदिकी मालाओंसे सुशोभित था, इक्यासी खण्डसे युक्त था और कोट, वापिका तथा बाग-बगीचोंसे अलंकृत था ॥३-४|| वह अधिष्ठाता नाभिराजके प्रभावसे अकेला ही अनेक कल्पवृक्षोंसे आवृत था तथा पूथिवीके मध्य अपने स्थानपर अधिष्ठित था ॥५॥
अथानन्तर राजा नाभिराजकी मरुदेवी नामकी पटरानी थी। यह शुद्ध कूलमें उत्पन्न हुई थी तथा जिस प्रकार इन्द्रको इन्द्राणी प्रिय होती है उसी प्रकार राजा नाभिराजको प्रिय थी ।।६।। जिनके नख अत्यन्त चमकदार थे ऐसे उसके उठे हुए दोनों पैरोंके अंगठे ऐसे जान पड़ते थे मानो ललाटके देखनेकी इच्छासे ही ऊपरकी ओर उठ रहे हों।।७। उसके दोनों चरण, उन्नत अग्रभागसे युक्त, सम, स्निग्ध, पतले और लाल-लाल नखोंकी किरणोंसे फर्शपर कुरवककी शोभा उत्पन्न कर रहे थे ||८|| जिनकी अंगुलियारूपी कलिकाएँ परस्परमें सटी हुई थीं, जिनकी गांठें छिपी हुई थीं और जो कछुओंके समान उन्नत थे, ऐसे उसके दोनों चरणकमल कान्तिरूपी जलमें मानो तैर ही रहे थे ॥९|| सुन्दर मच्छ तथा शंख आदिके लक्षणोंसे युक्त जिसके चरण, क्रीड़ाओंके समय ही पतिका स्पर्श पाकर पसीनाके सम्बन्धसे युक्त होते थे अन्य समय नहीं ॥१०॥ अनुक्रमिक गोलाईसे यक्त, तथा रोम एवं नसोंसे रहित उसकी दोनों जंघाएँ सौन्दयं रससे भरे हुए मानो कामदेवके दो तरकश ही हैं ।।११।। गूढ़ सन्धिसे युक्त जिसके दोनों कोमल घुटने पतिके अवयवोंको कोमल स्पर्शजन्य सुख प्रदान करते थे ।।१२।। केलेके स्तम्भ १. महादेवीति म. । २. जलप्लवी म.।
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