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सप्तमः सर्गः
म यशस्वी च तथैवासौ प्रसेनजित् । त्रयः कुलकराः प्रोक्ताः प्रियङ्गश्यामरोचिषः ॥१७४॥ चन्द्रामचन्द्रगौरामस्तथैव प्रथितः प्रभुः । कथिता दश शेषास्ते संतप्तकनकप्रभाः ॥ १७५ ॥ मर्यादारक्षणोपायहामाधिक्कारनीतयः । प्रजानां जनकाभास्ते प्रभवः प्रतिभाधिकाः ॥ १७६ ॥ इथं कुलकरोत्पत्तिः सकला कथिता नृप । नाभेयस्याधुनोत्पत्तिं शृणु पापविनाशिनीम् ॥ १७७॥ शिखरिणीवृत्तम्
जगत्षभिर्द्रव्यैरनुपचरितैव्र्याप्तमखिलं
यतः कालाद्यर्थे धनमपि धुनात्यन्धतमसं
तदप्यज्ज्ञानादधिकमभियुक्तैरं धिगतम् ॥
जिनादिव्यालोकः स्थिरपरिणतः श्रीमदुदयः ॥ १७८ ॥
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो कालकुल करोत्पत्ति वर्णनो नाम सप्तमः सर्गः समाप्तः ।
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और वज्रवृषभ नाराचसंहननसे युक्त गम्भीर तथा उदार शरीरके धारक थे, इनको अपने पूर्वभवका स्मरण था तथा इनकी मनुसंज्ञा थी || १७३ ।। इन कुलकरोंमें चक्षुष्मान्, यशस्वी और प्रसेनजित् ये तीन कुलकर प्रियंगु पुष्पके समान श्याम कान्तिके धारक थे, चन्द्राभ चन्द्रमाके समान गौरवर्णं था, और बाकी दश तपाये हुए स्वर्णके समान प्रभासे युक्त थे || १७४ -१७५ ॥ ये चौदह राजा मर्यादाकी रक्षाके उपायभूत 'हा', 'मा' और 'धिक्' इन तीन प्रकारकी दण्डनीतियोंको अपनाते थे, प्रजाके पिताके तुल्य थे और अत्यधिक प्रतिभाशाली थे ॥ १७६ ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! इस तरह मैंने समस्त कुलकरोंकी उत्पत्ति कही । अब नाभिराजाके पुत्र आदिनाथकी पापनाशिनी कथा सुन || १७७ ॥ यद्यपि यह समस्त संसार छह अकृत्रिम द्रव्योंसे व्याप्त है तो भी उद्यमशील आचार्योंने उसे अरहन्त भगवान् के दिव्य ज्ञानके प्रभावसे जान लिया है सो ठीक ही है क्योंकि नित्य और श्रीसम्पन्न उदयको धारण करनेवाला जिनेन्द्ररूपी सूर्यका प्रकाश, काल आदि द्रव्योंके विषय में जो गाढ़ अन्धकार है उसे भी क्षण भरमें नष्ट कर देता है ।। १७८ ।।
भगवान्
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्यंरचित हरिवंशपुराण में कालद्रव्य तथा कुकरों की उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला सातवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
१. तदप्यर्हत्ज्ञाना- ख. । २. ऋषीश्वरैः ज्ञातम् ।
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