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हरिवंशपुराणे तदपत्यं यशस्वीति स्वकालेऽपत्यमाख्यया । प्रजयायोजयत्प्रायो योजितो यशसोरुणा ॥१६॥ कोटीमागं स पल्यस्य शतसंगुणितं प्रभुः । जीवित्वोत्पाद्य सत्पुत्रमभिचन्द्रं दिवं गतः ॥१६॥ तत्कालेऽपत्यमुरिक्षप्य प्रजा रमयति स्म यत् । अभिचन्द्रमतः प्रापत्सोऽमिचन्द्र इति श्रुतिम् ॥१६॥ कोटीमागं स पल्यस्य सहस्रगुणितं गुणी। संजीव्योत्पाद्य चन्द्रामं तनयं प्रययौ दिवम् ॥१६३॥ कोटीमागं सहस्रं तु तस्यायुर्दशसंगुणम् । पल्यस्य मरुदेवं स मासं पुत्रमलालयत् ॥१६॥ मरुदेवस्य काले च मातः पितरिति ध्वनिम् । शुश्राव शिशुयुग्मस्य प्रथमं मिथुनं कलम् ॥१६५॥ एकमेवासृजत्पुत्रं प्रसेनजितमत्र सः । युग्मसृष्टेरिहैवोर्ध्वमितो व्यपनिनीषया॥१६॥ प्रसेनजितमायोज्य प्रस्वेदलवभूषितम् । विवाहविधिना वीरः प्रधानकुलकन्यया ॥१६॥ कोटीमागसहस्रं स पल्यस्य शतसंगुणम् । संजीव्य मरुदेवोऽपि महतां लोकमुद्ययौ ॥१६॥ पूर्वकोट्यायुषं नामि प्रसेनजिदजीजनत् । नामिच्छेदव्यवस्थायाः कर्तारं स्वर्गगामिनम् ॥१६९॥ दशानां कोटिलक्षाणां पल्यांशानामांशकम् । जीविस्वा कालधर्मेण प्रसेनजिदितो दिवम् ॥१७॥ शतान्यष्टादशोत्सेधो धनंष्यासन् प्रतिश्रुतेः । त्रयोदश तु पुत्रस्य पौत्रस्याष्टशतान्यतः ॥१७॥ परतः क्रमहानिस्तु धनुषां पञ्चविंशतेः । स पञ्चविंशतिः शेषा नाभेः पञ्चधनुःशती ॥१७२॥
आद्यसंस्थानसंघातगम्भीरोदारमूर्तयः । स्वपूर्वमवविज्ञाना मनवस्ते चतुर्दश ॥१७३॥ भोगकर आयु समाप्त होनेपर स्वर्ग गया। वह यद्यपि उदात्त = उदात्त नामका स्वर था तो भी स्वरित =स्वरित नामका स्वर हुआ था यह विरोध है । परिहार पक्षमें वह उदात्त-महान् था और स्वरितः स्वर् इतः-स्वर्ग गया था ॥१५९।। चक्षुष्मान्का पुत्र यशस्वी हुआ। इसने अपने समयमें प्रजाको पुत्रका नाम रखना सिखाया इसलिए प्रजाने इसे विस्तृत यशसे युक्त किया अर्थात् इसका यशस्वी यह नाम रखा ॥१६०। वह पल्यके सौ करोड़वें भाग जीवित रहकर तथा अभिचन्द्र नामक उत्तम पत्रको उत्पन्न कर स्वर्ग गया ॥१६१॥ उसके समयमें प्रजा अपनी सन्तानको ऊपर उठा चन्द्रमाके सामने क्रीड़ा कराती थी इसलिए वह अभिचन्द्र इस नामको प्राप्त हुआ ॥१६२॥ वह गुणवान् कुलकर पल्यके हजार करोड़वें भाग जीवित रहकर तथा चन्द्राभ नामक पुत्रको उत्पन्न कर स्वर्ग गया ॥१६३।। चन्द्राभने पल्यके दश हजार करोड़वें भाग तक जीवित रहकर मरुदेवको उत्पन्न किया। वह अपने मरुदेव पुत्रको एक मास तक खिलाता रहा अनन्तर स्वर्गको प्राप्त हुआ ॥१६४।।।। मरुदेवके समय स्त्री-पुरुष अपनी सन्तानके मुखसे 'हे माँ', 'हे पिता' इस प्रकारके मनोहर शब्द सुनने लगे थे ॥१६५।। पहले यहाँ युगल सन्तान उत्पन्न होती थी परन्तु इसके आगे युगल सन्तानकी उत्पत्तिको दूर करनेकी इच्छासे ही मानो मरुदेवने प्रसेनजित् नामक अकेले पुत्रको उत्पन्न किया था ॥१६६॥ इसके पूर्व भोगभूमिज मनुष्योंके शरीरमें पसीना नहीं आता था परन्तु प्रसेनजित्का शरीर जब कभी पसीनाके कणोंसे सुशोभित हो उठता था। वीर मरुदेवने अपने पुत्र प्रसेनजित्को विवाह-विधिके द्वारा किसी प्रधान कुलकी कन्याके साथ मिलाया था ।।१६७।। अन्तमें मरुदेव पल्यके लाख करोड़वें भाग तक जीवित रहकर स्वर्ग गया ॥१६८।। तदनन्तर प्रसेनजित्ने एक करोड़ पूर्वकी आयुवाले, जन्मकालमें बालकोंकी नाल काटने की व्यवस्था करनेवाले थे, तथा स्वगंगामी नाभिराज पुत्रको उत्पन्न किया ॥१६९|| पल्यके दश लाख करोड़वें भाग तक जीवित रहकर आयु समाप्त होनेपर प्रसेनजित् स्वर्ग गया ॥१७०||
प्रथम कुलकर प्रतिश्रु तिकी ऊंचाई अठारह सौ धनुष थी, इसके पुत्र दूसरे कुलकर सन्मतिकी तेरह सौ धनुष थी, प्रतिश्रुतिके पौत्र-तीसरे कुलकर क्षेमंकरको आठ सौ धनुष थी और इसके आगे प्रत्येकको पचीस-पचीस धनुष कम होती गयी है। इस तरह अन्तिम कुलकर नाभिराजकी ऊंचाई पाँच सौ पचीस धनुष थी ॥१७१-१७२॥ ये चौदह कुलकर समचतुरस्र संस्थान १. यशसा उरुणा = विशालेन । यशसाऽरुणा म.। २. प्रस्वेदमलभूपितम् म.।
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