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हरिवंशपुराणे इति नक्तं दिवं दृष्ट्वा देवताभिरनुष्ठितम् । आत्मनः शासनं लोके परेषामतिदुर्लभम् ॥५४॥ निश्चितश्चापि षण्मासान् पतन्त्या वसुधारया । नामिना मरुदेव्या च प्रार्थ्यस्तीर्थकरोद्भवः ॥५५॥ अथासौ सौम्यताराभिरभितः कृतसेवना । मरुदेवी सुरस्त्रीभिश्चन्द्रलेखेव हारिणी ॥५६॥ शरदभ्रावलीशुभ्रे प्रासादेऽगुरुधूपिते । नानोपधानकाधाने शयाना शयने विधौ ॥५७॥ निधीनिव निशाशेषे ददर्श शुमसूचकान् । क्रमेण षोडशस्वप्नानिमान दुर्लमदर्शनान् ॥५॥ प्रभूतदानधाराकरपुष्करधारिणम् । गीयमानं शुचिं भृङ्गैर्दानार्थिमिरिवेश्वरम् ॥५९॥ सुप्रतिध्वनिविक्षिप्तप्रतिपक्षं शुमोदयम् । शुमं भद्राकृतिं धीरं वृषं वृषमिवोन्नतम् ।।६०॥ मत्तेभ तमिवान्वेष्टं मदगन्धेन सूचितम् । सिंहमुस्थितमद्राक्षोनखदंष्ट्रासटोत्कटम् ॥६॥ चित्ररत्नघटाटोपघनघोषवनाघनैः । श्रियोऽभिषेकमम्मोजे नवाम्भोमिरिवावनेः ।।६।। नानापुष्पवने दीर्घ श्रीमाले सौरभौकटे । संभूयेव च सर्वतश्रीभिः सेवार्थमुद्धते ॥६३॥
गदा, शक्ति और स्वर्णमय छड़ी हाथमें लेकर खड़ी थीं ॥५३।। इस प्रकार लोकमें जो दूसरोंके लिए दुर्लभ थी, ऐसी देवियों द्वारा अपनी आज्ञाकी पूर्ति देखकर तथा लगातार छह माहसे पड़ती हुई रत्नधारासे राजा नाभिराज और मरुदेवीने निश्चय कर लिया कि हमारे यहाँ सबके द्वारा प्रार्थनीय तीर्थकरका जन्म होगा ।।५४-५५॥
___ अथानन्तर मनोहर ताराओंसे सेवित चन्द्रकलाके समान अनेक देवियोंसे सेवित मनोहरांगी मरुदेवी, शरद् ऋतुको मेघावलीके समान सफेद एवं अगुरु चन्दनसे सुवासित राजभवनमें नाना गद्दा-तकियोंसे युक्त चन्द्रतुल्य शय्यापर शयन कर रही थी कि उसने रात्रिके पश्चिम भागमें निधियों के समान शुभसूचक, इन दुर्लभ सोलह स्वप्नोंको क्रमसे देखा ॥५६-५८॥ प्रथम ही उसने सफेद हाथी देखा, ऐमा हाथी कि जो अत्यधिक मदकी धारासे गोली सूंड़ और उसके अग्रभागको धारण कर रहा था तथा मदके अर्थी भ्रमर जिसके आस-पास गुंजार कर रहे थे। वह हाथी किसी राजाके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार राजाके कर पुष्कर-हस्त कमल अत्यधिक दानके संकल्पके लिए गृहीत जल की धारासे गीले रहते हैं उसी प्रकार उस हाथीके कर पुष्करसूंड और उसके नथने अत्यधिक दान -मद जलकी धारासे गीले थे और जिस प्रकार राजाके समीप खड़े दानके अर्थीजन उसकी स्तुति किया करते हैं उसी प्रकार दान-मदके अर्थी भ्रमर उसके समीप
नार कर रहे थे।॥५९॥ दूसरी बार उसने भद्र आकृतिको धारण करनेवाला एक धीर-वीर बैल देखा। वह बैल ठीक धर्मके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार धर्म अपनी मधुर देशनासे एकान्तवादी प्रतिपक्षियोंको पराजित कर देता है उसी प्रकार वह बैल भी अपनी हुम्बाध्वनिसे प्रतिपक्षी बैलोंको पराजित कर रहा था, जिस प्रकार धर्म शुभ अभ्युदयको देता है उसी प्रकार वह बैल भी शुभ अभ्युदयको सूचित करनेवाला था। जिस प्रकार धर्म भद्राकृति-मंगलकारी होता है उसी प्रकार वह भद्राकृति-उत्तम आकृतिका धारक था, जिस प्रकार धर्म धीर-धी बुद्धिको प्रेरणा करनेवाला है उसी प्रकार वह बैल भी धीर-गम्भीर था और जिस प्रकार धर्म उन्नत-उत्कृष्ट होता है उसी प्रकार वह बैल भी उन्नत--ऊँचा था ॥६०॥ तीसरी बार तीक्ष्ण नख, दंष्ट्रा और सटा (गरदनके बालों) से युक्त एक सिंह देखा। वह सिंह ऐसा जान पड़ता था मानो पहले स्वप्नमें दिखे हाथोके मदको गन्ध पा उसे ढूँढ़नेके लिए ही तैयार खड़ा हो ॥६१।। चौथी बार उसने नाना रत्नमयी घड़ोंके विशाल शब्दसे युक्त मदोन्मत्त हाथियोंके द्वारा कमलपर बैठी लक्ष्मीका अभिषेक देखा । लक्ष्मीका वह अभिषेक ऐसा जान पड़ता था मानो इन्द्रधनुषसे उपलक्षित एवं घनघोर गर्जना करनेवाले मेघ नूतन जलसे पृथिवीका ही अभिषेक कर रहे हों ।।६२।। पांचवीं बार उसने नाना पुष्पोंसे व्याप्त तथा अत्यन्त १. घनाघना मत्तगजा मघाश्च ( इति क. प्रतिटिप्पण्याम् ) ।
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