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हरिवंशपुराणे
नीलकुचितसुस्निग्धसूक्ष्मकेशकलापिनः । समस्य शिरसो यस्याः शोभा वाक्पथमत्यगात् ॥२७॥ अखण्डमण्डलचन्द्रो मुखमण्डलशोमया। यस्याः पराजितः प्रापदाधिनेवाति पाण्डुताम् ॥२८॥ षोडशाल्पकलावस्या द्वासप्ततिकलोवला। इन्दुमूर्योपमीयेत सा कथं सकलङ्कया ॥२९॥ चतुःषष्टिगुणोत्कृष्टा मार्दवातिशया कथम् । सा चतुर्गुणया तुल्या पृथिव्या कठिनात्मना ॥३०॥ स्निग्धामिरपि सुस्निग्धा सौष्ठवात्मा जलात्ममिः । कथं साऽन्यप्रणेयामिरद्भिरप्युपमीयते ॥३१॥ सद्भासुररूपापि कथं वा दहनामिका । भेजे तेजोमयी मूर्तिस्तन्मूर्तरुपमानताम् ॥३२॥ दर्शनस्पर्शनाभ्यां या नाभेरतिसुखावहा । स्पर्शमात्रसुखाहा वायुमूर्त्या कथं समा ॥३३॥ अशून्यहृदयस्पर्शा मर्नुर्या स्पर्शशून्यया । साऽकाशास्मिकया शक्त्या शुद्धयाऽपि कथं समा ॥३४॥ चतुर्दशविधं यस्याः कल्पपादपकल्पितम् । भङ्गप्रत्यङ्गसङ्गेन भूषणं भूष्यतां गतम् ॥३५॥ भुक्षानस्य तया नामेमोग स्वर्लोकसंनिभम् । वक्तं शक्तौ यदि व्यक्तं वक्ता शुक्रो बृहस्पतिः ॥३६॥ अथ तीर्थकृतामाये स्वर्गात सर्वार्थसिद्धितः । तयोः प्रागेव षण्मासान् वृषभेऽवतरिष्यति ॥३७॥ दिवः पतितुमारब्धा वसुधारा गृहाङ्गणे । प्रत्यहं धनदोन्मुक्ता पुरुहूतनिदेशतः ॥३०॥ श्रीलक्ष्मीपतिकीाचा नवतिनव चाययुः । प्राग्विद्यदिक्कुमार्योऽपि दिग्विदिग्भ्यः ससंभ्रमाः ॥३९॥
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काले धुंघराले चिकने और महीन केशके समूहसे युक्त जिसके सुन्दर शिरकी शोभा वचन मार्गको उल्लंघन कर गयी थी॥२७॥ जिसके मख-मण्डलकी शोभासे पराजित हुआ पूर्णचन्द्र मानसिक व्यथासे ही मानो अत्यन्त सफेदीको प्राप्त हो गया था ॥२८॥ चन्द्रमाको मूर्ति सोलह कलाओंसे मुक्त है और मरुदेवी बहत्तर कलाओंसे सहित थी, चन्द्रमाकी मूर्ति कलंक सहित है और मरुदेवी अत्यन्त उज्ज्वल थी अतः चन्द्रमाकी मूर्तिसे उसकी तुलना कैसे हो सकती है ? ॥२९|| मरुदेवी चौंसठ गुणोंसे युक्त थी और पृथिवी मात्र चार गुणोंको धारण करनेवाली है। मरुदेवी कोमलताके अतिशयको प्राप्त थी और पृथिवी अत्यन्त कठिन है अतः यह उसके तुल्य कैसे हो सकती है ? ॥३०॥ यद्यपि जल स्निग्ध है-कुछ-कुछ चिकनाईसे युक्त है पर मरुदेवी सुस्निग्धा-अत्यधिक चिकनाईसे युक्त थी ( पक्षमें पति-विषयक स्नेहसे सहित थी), जल जड़रूप है, मूर्ख है-(पक्षमें पानीरूप है) और मरुदेवी कलाओंमें निपुण थी, जल, अन्यप्रणेया-दूसरेके द्वारा ले जाने योग्य है और मरदेवी वन्यप्रणेया नहीं थी-स्वावलम्बी थी अतः उसकी जलके साथ उपमा कैसे हो सकती है ? ॥३१॥ यद्यपि अग्नि मरुदेवीके समान भास्वर रूप है परन्तु साथ ही दाहमयी भी है अतः वह मरदेवीके शरीरकी उपमाको कैसे प्राप्त हो सकती है ? ॥३२॥ मरुदेवी, दर्शन और स्पर्श दोनोंके द्वारा नाभिराजको अतिशय सुख देनेवाली थी परन्तु वायु मात्र स्पर्शके द्वारा सुख पहुँचाती थी अतः वह वायुके समान कैसे हो सकती थी ? ॥३३॥ मरुदेवी पतिके हृदयका स्पर्श करनेवाली थी जबकि आकाश स्पर्शसे शून्य है अत: वह शुद्ध होनेपर भी आकाशरूपी शक्तिके सदृश कैसे हो सकती है ? ॥३४॥ कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए चौदह प्रकारके आभूषण जिसके अंग-प्रत्यंगका सम्बन्ध पाकर भूष्यताको प्राप्त हुए थे। भावार्थ-आभूषणोंने उसके शरीरको विभूषित नहीं किया था किन्तु उसके शरीरने ही आभूषणोंको विभूषित किया था ॥३५॥ उस मरुदेवीके साथ स्वर्ग लोकके समान भोग भोगनेवाले राजा नाभिका यदि स्पष्ट वर्णन करने के लिए कोई समर्थ है तो वक्ता शुक्र और बृहस्पति हो समर्थ हैं अन्य नहीं ॥३६॥
अथानन्तर जब प्रथम तीर्थकर भगवान् वृषभदेव सर्वार्थसिद्धि विमानसे च्युत हो राजा नाभिराज और मरुदेवीके यहां अवतार लेंगे उसके छह माह पूर्वसे ही उनके घरके आँगनमें इन्द्रको आज्ञासे कुबेरके द्वारा छोड़ी हुई रत्नोंकी धारा आकाशमें पड़ने लगी ॥३७-३८॥ श्री, लक्ष्मी,
१. मेने म.। २. शुक्रबृहपति म., क.।
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