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अष्टमः सर्गः
१५३ भास्वराम्बरभूषैषा माति भास्वद्विशेषका । पुरन्ध्रीरिव पूर्वाऽशा मङ्गलाय तवोद्गता ।।८।। दीर्घा नीत्वा निशामेषा दीर्घिकास्विनदर्शने । तुष्टा स्वान् घटयत्येव चक्रवाकी कलारवान् ॥८॥ त्वत्पादन्यासलीलायामीक्षणार्थमिवाकुलम् । स्वामुत्थापयते कूजत्कलहंसकुलं कलम् ॥४५॥ घर्मिता मदवातेन तामिनयमूर्तयः । भवत्या दर्शयन्तीव नृत्तारम्भममी दमाः ॥८६॥ दिङ्मुखानि प्रसन्नानि चेष्टितानीव तेऽधुना । सुप्रभातमिदं देवि मुञ्च शय्यामनिन्दिते ॥८७॥ इति वन्दिजनैर्वन्द्या साऽमुञ्चत् शुचिविग्रहा। शय्यां पुष्पतरङ्गाया हंसीव सिकतास्थलीम् ॥८८॥ धौतवासं गृहीत्वाऽसौ धौतच्छाया विनिर्गता । शुशुभे शारदाम्भोदात् तन्वीव शशिनः कला ॥८९॥ श्रीविद्यददिक्कुमारीभिः प्रत्यग्रकृतभूषणा । साऽन्तर्गर्भाऽन्तिकं याता घनश्री मिभूभृतः ॥१०॥ भद्रासनस्थितायाऽस्मै क्रमेण स्वासनस्थिता । श्रीरिवावेदयत् स्वप्नान् सत्कराम्भोजकुडमला ॥११॥ स्वप्नाथं सोऽवधायतां जगाद दयिते ध्रुवम् । संक्रान्तोऽद्य त्रिलोकानां नाथस्तीर्थकरस्त्वयि ॥१२॥ न दूराल्पफलप्राप्तावीदृशं स्वप्नदर्शनम् । अतोऽद्येव प्रतीतो मे भवस्यां गर्मसंभवः ॥१३॥
षण्मासवसुवृष्टया च देवतापरिचर्यया । सूचिता जिनसंभूतिर्या साद्य फलिताऽऽवयोः ॥१४॥ उसी प्रकार सूर्यको प्रभा पहले मन्द होती है और आगे चलकर खूब फैल जाती है-सर्वत्र व्याप्त हो जाती है। जिस प्रकार सज्जनकी मित्रता सार्थक है उसी प्रकार सूर्यको प्रभा सार्थक है ।।८२।। भास्वर-अम्बर-देदीप्यमान आकाश ही जिसका आभूषण है ( पक्षमें जिसके वस्त्र और आभषण देदीप्यमान हैं तथा भास्वविशेषका-सयं ही जिसका तिलक है ( पक्षमें देदीप्यमान तिलकसे युक्त है ) ऐसी यह पूर्व दिशा सौभाग्यवती स्त्रीके समान मानो तुम्हारा मंगल करनेके लिए ही उद्यत हुई है ।।८३॥ वापिकाओंमें लम्बी रात बितानेके बाद अब सूर्यका दर्शन हुआ है इसलिए यह चकवी प्रसन्न हो अपने मधुर शब्द कर रही है अथवा मधुर शब्द करनेवाले आत्मीय जनोंको इकट्ठा कर रही है ।।८४।। इधर मधुर शब्द करता हुआ यह कलहंसोंका समूह तुम्हें उठा रहा है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो तुम्हारे पादनिक्षेपको लीलाको देखनेके लिए अत्यन्त उतावला हो रहा है ।।८।। जो मन्द-मन्द वायुसे हिल रहे हैं, तथा अभिनयको मुद्राको धारण किये हैं ऐसे ये वृक्ष, आपके लिए मानो अपने नृत्यका आरम्भ ही दिखला रहे हैं ।।८६।। हे माता! इस समय समस्त दिशाएँ तुम्हारी चेष्टाके समान निर्मल हो गयी हैं एवं सुन्दर प्रभातकाल हो गया है, इसलिए हे अनिन्दिते देवि ! शय्याको छोड़ो।।८७|| इस प्रकार बन्दीजनोंके द्वारा वन्दनीय, एवं निर्मल शरीरको धारण करनेवाली महारानी मरुदेवीने शय्याको उस प्रकार छोड़ा जिस प्रकार कि हंसी नदीके रेतीले तटको छोड़ती है ।।८८॥ उज्ज्वल कान्तिको धारण करनेवाली मरुदेवी धुले हुए वस्त्रको ग्रहण कर जब शयनागारसे बाहर निकली तब शरद् ऋतुके मेघसे बाहर निकली चन्द्रमाको पतली कलाके समान सुशोभित होने लगी ॥८९|| विद्युत्कुमारी और दिक्कुमारी देवियोंने जिसे नवीन-नवीन आभूषण पहनाये थे तथा जो अन्तर्गतगर्भा होनेसे गृहीतजला मेघमालाके समान जान पड़ती थी ऐसी मरुदेवी नाभिराजरूपी पर्वतके समीप गयी ॥९०॥ जो शोभामें लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी ऐसी मरुदेवो वहां जाकर अपने आसनपर बैठी और हस्तकमल जोड़, भद्रासनपर बैठे हुए महाराजसे क्रम-पूर्वक स्वप्नोंका वर्णन करने लगी ॥११॥
स्वप्नोंका फल समझकर महाराज नाभिराजने उससे कहा कि हे प्रिये ! निश्चय ही आज तुम्हारे गर्भ में तीन लोकके नाथ तीर्थकरने अवतार लिया है ।।१२।। दूरवर्ती तथा अल्प फलकी प्राप्तिके समय ऐसे स्वप्न नहीं दिखते इसलिए मुझे विश्वास है कि आज ही आपके गर्भ रहा है ॥९३।। लगातार छह माससे होनेवाली रत्नोंको वर्षा और देवताओंके द्वारा की हुई शुश्रूषासे १. सूर्यदर्शने सति । २. धौतेवासं म. ।
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