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हरिवंशपुराणे नागलोकं विजित्येव नागेन्द्रभवनं श्रिया । नागकन्यामिरुद्भूतं शेषलोकजिगीषया ॥७२॥ अभ्रंलिहं निरभ्रेऽपि विद्युदिन्द्रधनुःश्रियम् । खे सृजन्तं महारत्नराशिं प्रांशुभिरंशुमिः ॥७३॥ सुप्रसन्नं भ्रमज्वालं निधूमेन्धनपावकम् । प्रचलत्पुष्पितादभ्रंकिंशुकोस्करविभ्रमम् ॥७४|| खण्डस्वप्नानिमान दृष्टा दधेऽनन्तरमात्मनि । जिनं सा वृषरूपेण प्रविष्टं मुखवर्मना ॥७५॥ सुस्वप्नदर्शनानन्दं स्वामिनी यन्नवं मया । प्रापितेति कृतार्थेव क्वाऽपि निद्रासखी निरैत् ।।७६।। विबुध्यस्व विबुद्धार्थे विवर्धस्व विवर्धने । विजयस्व जयश्रीशे देवि पूर्णमनोरथे ॥७७॥ इत्यादयो विबोधाय दिक्कुमारीभिरीरिता: । याताः स्वयं विबुद्धायाः केवलं मङ्गलं गिरः ।।७८॥ दोषाकरः कलङ्क्येष निःकलङ्कगुणाकरम् । दृष्ट्व मुखचन्द्रं ते हिया भवति निष्प्रमः ॥७९॥ तवैव गृहमुद्योत्यं दशनप्रभयाऽधुना । इतोव स्फुरितव्याजात् प्रदीपाः स्वं हसन्त्यमी ॥८॥ अत्यन्तमुखरागाड्या क्षगरजितविप्रिया । प्रस्खलखलमैत्रीव वन्ध्या संध्या विरज्यते ॥८॥
स्वमावमत्सरारम्भा ग्यापिकोदयमेष्यतः । प्रमा रवेरवन्ध्यार्था साधोमैत्रीव वर्द्धते ॥१२॥ चौदहवीं बार उसने नागेन्द्रका भवन देखा जो ऐसा जान पड़ता था मानो वह अपनी शोभासे नागलोकको तो जीत चुका था अब अन्य लोकोंको जीतनेकी इच्छासे ही नागकन्याएँ उसे पृथिवीपर ऊपर लायी हों ॥७२।। पन्द्रहवीं बार उसने आकाशमें महारत्नोंकी एक ऐसी राशि देखी जो अपनी उन्नत किरणोंके द्वारा मेघ रहित आकाशमें बिजली और इन्द्रधनुषसे शोभित मेघकी रचना कर रही थी॥७३|| और सोलहवीं बार उसने अत्यन्त निर्मल एवं घूमती हुई ज्वालाओंसे युक्त, निर्धूम अग्नि देखी। वह अग्नि ऐसी जान पड़ती थी मानो चंचल फूलोंसे युक्त पलाशके बड़े-बड़े वृक्षोंका समूह ही हो ॥७४। इस प्रकार पृथक्-पृथक् दिखनेवाले इन सोलह स्वप्नोंको देखकर रानी मरुदेवीने उसके बाद बैलके रूपमें मुख मार्गसे प्रविष्ट हुए जिनेन्द्र भगवान्को भीतर धारण किया ॥७५।। ___मैं स्वामिनीको उत्तम स्वप्नोंके देखनेका नूतन आनन्द प्राप्त करा चुकी हूँ इसलिए कृतकृत्य हुईकी तरह रानी मरुदेवोको निद्रारूपी सखी कहीं भाग निकली ॥७६।। महारानी मरुदेवी स्वप्न-दर्शनके बाद स्वयं जाग गयो थीं, इसलिए दिक्कुमारियोंके द्वारा उसके जगानेके लिए 'हे पदार्थों को जाननेवाली माता ! जागो, हे वृद्धिरूपिणी माता! वृद्धिको प्राप्त होओ, हे जयलक्ष्मीकी स्वामिनि ! पूर्ण मनोरथोंवाली माता ! जयवन्त रहो' इत्यादि कहे गये वचन केवल मंगलरूपताको प्राप्त हुए थे ॥७७-७८॥ हे माता ! यह चन्द्रमा दोषाकर-दोषोंको खान ( पक्षमें निशाकर ) और कलंकी-दोषयुक्त (पक्षमें काले चिह्नसे युक्त) है अतः तुम्हारे निष्कलंक और गुणोंकी खानभूत मुखचन्द्रको देखकर लज्जासे ही मानो प्रभा-रहित हो गया है ॥७९|| अब तो यह घर तुम्हारे ही दोनोंकी प्रभासे प्रकाशित है-हम लोगोंकी आवश्यकता नहीं, यह विचारकर ही मानो ये दीपक स्फुरणके बहाने अपने आपको हँसो कर रहे हैं ।।८।। हे माता ! यह प्रातः सन्ध्या, दुष्टको चंचल मित्रताके समान राग-रहित होती जा रही है अर्थात् जिस प्रकार दुष्टको मित्रता प्रारम्भमें रागसे सहित होती है और क्षण-भर बाद ही शत्रुओंको अनुरंजित करने लगती है उसी प्रकार यह प्रात: सन्ध्या पहले तो राग अर्थात् लालिमासे सहित थी और अब। बाद लालिमासे रहित हुई जा रही है। जिस प्रकार दुष्टको मित्रता वन्ध्या-निष्फल रहती है-उससे किसी कार्यकी सिद्धि नहीं होती उसी प्रकार यह प्रातः सन्ध्या भी वन्ध्या है-इससे किसी कार्यकी सिद्धि दृष्टिगत नहीं हो रही है ॥८१।। और यह उदित होते हुए सूर्यको प्रभा सज्जनको मित्रताके समान उत्तरोत्तर बढ़ती चली जा रही है। क्योंकि जिस प्रकार सज्जनकी मित्रता प्रारम्भमें मत्सर-युक्त होनेके कारण फीकी रहती है और आगे चलकर खूब फैल जाती है १. पुष्पितादभ्रात् किंशुको म,। २. सान्त रान् वा। ३. त्वं म. । ४. -मेष्यति क. ।
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