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अष्टमः सर्गः
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प्रयुज्य प्रणति तुष्टा जिनपित्रोभविष्यतोः । स्वनिवेद्यागर्म स्वं च पाकशासनशासनात् ॥४०॥ प्रत्येक शासनं देव्यो मरुदेव्या महादरात् । प्रतीषदेवि ! देशाज्ञा नन्दं जीवेति सगिरः ॥४१॥ रूपयौवनलावण्यसौभाग्यादिगुणार्णवम् । वर्णयन्ति तदा काश्चिदाश्चयं परमं श्रिताः ॥४२॥ अक्षरालेख्यगन्धर्वगणितागमपूर्वकम् । कलाकौशलमन्यास्तु प्रशंसन्ति समन्ततः ॥४३॥ दर्शयन्ति स्वयं काश्चित् न्त्रिीवीणादिकौशलम् । गायन्ति मधुरं गेयं काश्चित्कर्णरसायनम् ॥४४।। शोमनामिनयं काश्चित् शृङ्गारादिरसोत्कटम् । हावभावविलासिन्यो नृत्यन्ति नयनामतम् ॥४५॥ हस्तसंवाहने काश्चित दिसंवाहने पराः । अङ्गसंवाहने काश्चिद व्यावृत्ता मदुपाणयः ॥४६॥ अङ्गाभ्यङ्गविधौ काश्चिद् काश्चिदुद्वर्तने पराः । काश्चिन्मजनके काश्चित्स्नानवस्त्रनिपीलने ॥४७॥ 'सद्गन्धानयने काश्चित् तत्समालभने पराः । काश्चिच्चित्राम्बराधाने परिधानविधौ पराः ॥४८॥ काश्चिद्भुषालगाधाने काश्चिदेहप्रसाधने । दिव्यान्नानयने काश्चित् काश्चिद्भोजनकर्मणि ॥४९॥ शय्यासनविधौ काश्चित् काश्चित्ताम्बूल ढोकने । काश्चित्पतदद्महे व्यग्राः काश्चिच्च गृहकर्मणि ।।५।। दर्पणग्रहणे काश्चिचामरग्रहणे पराः । छत्रस्य ग्रहणे काश्चिद् व्यजनग्रहणे पराः ॥५१॥ अङ्गरक्षापरा देव्यः खड्गव्यग्रामपाणयः । ग्रहरक्ष:पिशाचेभ्यो रक्षन्त्यः प्रति जाग्रति ॥५२।। अभ्यन्तरगृहद्वारे काश्चिकाश्चिद्द । असिचक्रगदाशक्तिहेमवेत्रकराः स्थिताः ॥५३॥
धृति, कीर्ति आदि निन्यानबे विद्युत्कुमारी और दिक्कुमारी देवियां भी छह माह पहलेसे बड़े हर्पके साथ दिशाओं और विदिशाओंसे आ गयीं ॥३९|| उन्होंने आकर बड़े सन्तोषसे जिनेन्द्र भगवान्के होनहार माता-पिताको नमस्कार किया और हम इन्द्रकी आज्ञासे स्वर्गलोकसे यहाँ आयी हैं, इस प्रकार अपना परिचय दिया ॥४०॥ 'हे देवि ! आज्ञा दो, स्मृद्धिसम्पन्न होओ, और चिर काल तक जीवित रहो' इस प्रकारको उत्तम वाणोको बोलती हुई वे देवियाँ महान् आदरके साथ मरुदेवीके आदेशको प्रतीक्षा करने लगीं ॥४१।। उस समय परम आश्चर्यको प्राप्त हईं कितनी ही देवियाँ मरुदेवीके रूप, यौवन, सौन्दर्य और सौभाग्य आदि गुणोंके सागरका वर्णन करती थीं ॥४२॥ कितनी ही देवियां मरुदेवीके अक्षर-विज्ञान, चित्र-विज्ञान, संगीत-विज्ञान, गणित-विज्ञान और आगमविज्ञानको आदि लेकर उसके कला-कौशलको प्रशंसा करती थीं ॥४३।। कितनी ही देवियाँ स्वयं अपनी तन्त्री तथा वीणा आदि विषयक चतुराई दिखलाती थीं। कितनी ही कानोंके लिए रसायनस्वरूप मधुर गान गाती थीं ॥४४॥ हाव, भाव और विलाससे भरी हुई कितनी ही देवियाँ सुन्दर अभिनयसे युक्त, शृंगारादि रसोंसे उत्कट और नेत्रोंके लिए अमृतस्वरूप मनोहर नृत्य करती
1४५।। कोमल हाथोंको धारण करनेवालो कितनी ही देवियाँ मरुदेवीके हाथ दाबने में, कितनी ही पैर दाबने में तथा कितनी ही अन्य अंगोंके दाबने में लग गयो थीं ॥४६|| कितनी ही शरीरपर तेलका मर्दन करने में, कितनी हो उबटन लगाने में, कितनी ही स्नान कराने में और कितनी ही स्नानके वस्त्र निचोड़ने में तत्पर थीं ॥४७॥ कोई उत्तम गन्धके लाने में, कोई उसका लेप लगाने में, कोई चित्र-विचित्र वस्त्र संभालने में, और कोई वस्त्र पहनाने में लग गयो॥४८॥ कोई आभूषण तथा मालाओंके लाने में, कोई शरीरको सजावटमें, कोई दिव्य भोजनके लानेमें और कोई भोजन करानेमें व्यग्र थी ॥४२|| कोई विस्तर तथा आसनके बिछानेमें, कोई पान लगाने में, कोई पीकदान रखने में, कोई गृह-सम्बन्धो कार्यमें, कोई दर्पण उठानेमें, कोई चमर ग्रहण करने में, कोई छत्र लगानेमें और कोई पंखा झलने में तत्पर थी ॥५०-५१|| कितनी ही देवियाँ हाथमे तलवार ले अंगरक्षा करने में तत्पर रहती थीं एवं ग्रह, राक्षस और पिशाचोंसे रक्षा करती हुई जागृत रहती थों ॥५२॥ कितनी ही देवियाँ घरके भीतरो द्वारपर और कितनी ही बाह्य द्वारपर तलवार, चक्र,
१. इन्द्राज्ञया । २. निपीडने । ३. -बभुः म., क.।
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