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सप्तमः सर्गः
१ 'अम्बु निम्बमे रौद्रं कोद्रवे मदकृद् यथा । विषं व्यालमुखे क्षीरमपात्रे पतितं तथा ॥ ११८ ॥ सुपात्रे सुफलं दानं कुपात्रे कुफलं भवेत् । अपात्रे दुःखदं तस्मात्पात्रेभ्यः प्रतिपादयेत् ॥ ११९ ॥ यात्युपाधिवशाद् भेदं निर्मलः स्फटिकोपरुः । यथा तथा च दानाघं प्रतिग्राहकभेदतः ॥ १२० ॥ सम्यग्दृष्टिः पुनः पात्रे स्वपरानुग्रहेच्छया । दानं दत्त्वा विशुद्धात्मा स्वर्गमेव गृही व्रजेत् ॥ १२१ ॥ अथ कालद्वsaid क्रमेण सुखकारणे । पल्याष्टमागशेषे च तृतीये समवस्थिते ।। १२२|| क्रमेण क्षीयमाणेषु कल्पवृक्षेषु भूरिषु । क्षेत्रे कुलकरोत्पत्तिं शृणु श्रेणिक ! सांप्रतम् ॥ १२३ ॥ गङ्गासिन्धुमहानद्योर्मध्ये दक्षिणभारते । चतुर्दश यथोत्पन्नाः क्रमेण कुलकारिणः ||१२४|| प्रतिश्रुतिरभूदाद्यस्तेषां कुलकरप्रभुः । महाप्रभावसंपन्नः स्वमवस्मरणान्वितः ।। १२५ ।। तस्य काले प्रजा दृष्ट्वा पौर्णमास्यां सहैव खे । आकाशगजघण्टाभे द्वे चन्द्रादित्यमण्डले ॥ १२६॥ आकस्मिक भयोद्विग्नाः स्वमहोत्पातशङ्किताः । प्रजाः संभूय पप्रच्छ्रुस्तं प्रभुं शरणागताः ॥१२७॥ नरप्रधान ! कावेतावपूर्वी गगनान्तयोः । दृश्यते मण्डलाकारावकाण्डे नो भयंकरौ ॥१२८॥ अहो दुःसहमस्माकमकस्माद् भयमुद्गतम् । किं महानलयः प्राप्तः प्रजानामेव दुस्तरः || १२९ || इति पृष्टः प्रभुः प्राह शुचं मुञ्चत हे प्रजाः । न किंचिद् मयमस्माकं स्वस्था भवत कथ्यते ॥१३०॥ प्रभामण्डलसंवीतमेतदादित्यमण्डलम् । प्रतीच्यां वीक्षते भद्रा ! प्राच्यां मोश्वन्द्रमण्डलम् ॥ १३१ ॥
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जिस प्रकार नीमके वृक्षमें पड़ा हुआ पानी कड़ आ हो जाता है, कोदोंमें दिया हुआ पानी मदकारक हो जाता है और सर्पके मुखमें पड़ा हुआ दूध विष हो जाता है, उसी प्रकार अपात्र के लिए दिया हुआ दान विपरीत फलको करनेवाला हो जाता है ॥ ११८ ॥ चूँकि सुपात्र के लिए दिया हुआ दान सुफलको देनेवाला है, कुपात्रके लिए दिया हुआ दान कुफलको देनेवाला है और अपात्र के लिए दिया हुआ दान दुःख देनेवाला है अतः पात्र के लिए ही दान देना चाहिए ॥ ११९ ॥ जिस प्रकार निर्मल स्फटिकमणि उपाधिके वशसे भेदको प्राप्त होता है उसी प्रकार पात्रके भेदसे दानका फल भी भेदको प्राप्त हो जाता है ॥ १२० ॥ निर्मल अभिप्रायको धारण करनेवाला सम्यग्दृष्टि गृहस्थ यदि पात्र के लिए दान देता है तो वह नियमसे स्वर्गं ही जाता है ॥ १२१ ॥
अथानन्तर सुख के कारणभूत जब प्रारम्भके दो काल बीत गये और पल्यके आठवें भाग बराबर तीसरा काल बाकी रह गया तथा कल्पवृक्ष जो पहले अधिक मात्रामें थे क्रम-क्रमसे कम होने लगे तब इस क्षेत्र में कुलकरोंकी उत्पत्ति हुई । हे श्रेणिक ! मैं इस समय उन्हीं कुलकरोंकी उत्पत्ति कहता हूँ तू श्रवण कर | १२२ - १२३ ।। गंगा और सिन्धु महानदियोंके बीच दक्षिण भरत क्षेत्रमें क्रमसे चौदह कुलकर उत्पन्न हुए थे || १२४|| उन कुलकरोंमें पहला कुलकर प्रतिश्रुति था । वह महाप्रभाव से सम्पन्न था तथा अपने पूर्वंभवके स्मरणसे सहित था ॥ १२५ ॥ उसके समय प्रजाके लोग पौर्णमासीके दिन आकाशमें एक साथ, आकाशरूपी हाथीके दो घंटाओंके समान आभावाले चन्द्र और सूर्य - मण्डलको देखकर अपने ऊपर आनेवाले किसी महान् उत्पातसे शंकित हो आकस्मिक भयसे उद्विग्न हो उठे तथा सब एकत्रित हो प्रतिश्रुति कुलकरकी शरण में जाकर उससे पूछने लगे ॥ १२६ - १२७॥ कि हे नररत्न ! आकाशके दोनों छोरोंपर, मण्डलाकार तथा असमय में हम लोगोंको भय उत्पन्न करनेवाले ये दो कौन अपूर्वं पदार्थं दीख रहे हैं ? || १२८ || अहो ? हम लोगोंके लिए यह अकस्मात् ही दुःसह भय प्राप्त हुआ है। क्या यह प्रजाके लिए दुस्तर महाप्रलय ही आ पहुँचा है ? || १२९ ॥ इस प्रकार पूछे जानेपर स्वामी प्रति तिने कहा कि हे प्रजाजनो ! भय छोड़ो, हमारे लिए कुछ भी भय प्राप्त नहीं हुआ है । आप लोग स्वस्थ रहिए। ये जो दिखाई दे रहे हैं मैं उनका कथन करता हूँ ॥ १३० ॥ हे भद्रपुरुषो ! यह पश्चिममें प्रभाके समूह से व्याप्त सूर्य-मण्डल
१. अम्बु निम्बुद्रुमे क. ख. । २. दृश्यते म. ।
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