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सप्तमः सर्गः मालतीमल्लिकाद्युद्यस्कुसुमप्रथितानि तु । भान्ति माल्यानि बिभ्राणा माल्यानधरणीरुहाः ॥४८॥ हारकुण्डलकेयूरकटिसूत्रादिभिश्चिताः । भूषणैर्भूषिताङ्गाश्च मान्ति स्त्रीपुरुषोचितः ॥८९॥ मद्यभेदाः प्रसन्नाद्या मदशक्तर्विधायकाः । संपाद्यन्ते नरस्त्रीणां हृद्या मद्याङ्गपादपैः ॥१०॥ दशधाकल्पवृक्षोत्थं भोगं युग्मानि भुञ्जते । दशाङ्गमोगचक्रेशमोगतोऽभ्यधिकं तदा ॥११॥ तदा स्त्रीपुंसयुग्मानां गर्भानिलुंठितात्मनाम् । दिनानि सप्त गच्छन्ति निजाङ्गुष्ठावलेहनैः ॥१२॥ रंगतामपि सप्तव सप्तास्थिरपराक्रमैः । स्थिरैश्च सप्त तैः सप्त कलासु च गुणेषु च ॥१३॥ कालेन तावता तेषां प्राप्तयौवनसंपदाम् । सम्यक्त्वग्रहणेऽपि स्याद् योग्यता सप्तमिर्दिनैः ॥९॥ स्त्रीपुंसलक्षणेः पूर्णा विशुद्धेन्द्रियबुद्धयः। कलागणविदग्धास्ता रमन्ते नीरुजाः प्रजाः ॥१५॥ नरा देवकुमारामा नार्यो देवाङ्गनोपमाः । वर्णगन्धरसस्पर्शशब्दवेषमनोरमाः ॥१६॥ श्रोत्रं गीतरवे रूपे चक्षुर्घाणं सुसौरभे । जिह्वा मुखरसास्वादे सुस्पर्श स्पर्शनं तनोः ॥९७॥ अन्योन्यस्य तदाशक्तं दम्पतीनां निरन्तरम् । स्तोकमपि न संतृप्तं मनोऽधिष्ठितमिन्द्रियम् ॥१८॥ मिथुनानि यथा नणां रमन्ते प्रेमनिर्भरम् । तथा कल्पदमाहारैस्तिरश्चां तृप्तचेतसाम् ॥१९॥ क्वचिस्सैह क्वचिञ्चमं क्वचिदौष्टं च शौकरम् । क्वचित् क्रीडन्ति वैयाघ्र मिथुनं मदमन्थरम् ॥१०॥ गवाश्वमहिषादीनां मिथुनानि मिथस्तदा । मायुःप्रमितायूंषि रम्यन्ते निजेच्छया ॥१०॥ आर्यामाह नरो नारीमायं नारी नरं निजम् । मोगममिनरस्त्रीणां नाम साधारणं हि तत् ॥१.२॥ उत्तमा जातिरेकैव चातुर्वण्यं न षक्रियाः । न स्वस्वामिकृतः पुंसां संबन्धो न च लिङ्गिनः ॥१३॥
सुशोभित होते थे ।।८७।। माल्यांग जातिके कल्पवृक्ष मालती, मल्लिका आदिके ताजे फूलोंसे गुंथी हुई मालाओंको धारण करते हुए सुशोभित हो रहे थे ।।८८॥ भूषणांग जातिके कल्पवृक्ष स्त्रीपुरुषोंके योग्य हार, कुण्डल, बाजूबन्द तथा मेखला आदि आभूषणोंसे व्याप्त हो सुशोभित थे ।।८।। और मद्यांग जातिके कल्पवृक्षोंके द्वारा स्त्री-पुरुषोंके लिए प्रिय तथा उनकी मदशक्तिको उत्पन्न करनेवाले प्रसन्ना आदि नाना प्रकारके मद्य उत्पन्न किये जाते थे ॥९०॥ उस समय यहाँ स्त्री-पुरुषोंके युगल दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न चक्रवर्तीके दशांग भोगोंसे भी अधिक भोगोंका उपभोग करते थे ।।११।। उस समय गर्भसे उत्पन्न हुए स्त्री-पुरुषों (युगलियों ) के सात दिन तो अपना अंगूठा चूसते-चूसते व्यतीत हो जाते थे, तदनन्तर सात दिन रेंगते, सात दिन लड़खड़ाती हुई गतिसे, सात दिन स्थिर गतिसे, सात दिन कला तथा अनेक गुणोंके अभ्याससे और सात दिन यौवनरूप सम्पदाके प्राप्त करने में व्यतीत होते थे। उसके सातवें सप्ताहमें उन्हें सम्यग्दर्शन ग्रहण करनेकी योग्यता आती थी ॥९२-९४॥ स्त्री-पुरुषोंके उत्तमोत्तम लक्षणोंसे युक्त, विशुद्ध इन्द्रिय और बुद्धिके धारक, कला और गुणोंमें चतुर एवं रोगोंसे रहित उस समयके लोग आनन्दसे क्रीड़ा करते थे ॥९५।। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और वेषके द्वारा मनको आनन्दित करनेवाले वहाँके लोग देवकुमारोंके समान तथा वहाँको स्त्रियां देवांगनाओंके समान जान पड़ती थों ।।९६।। उस समय स्त्री-पुरुषोंके कान परस्परके संगीत शब्दोंमें, चक्षु रूपके देखने में, घ्राण सुगन्धिके ग्रहण करनेमें, जिह्वा मुखके रसास्वादमें और स्पर्शन शरीरके उत्तम स्पर्शके ग्रहण करने में निरन्तर आसक्त रहते थे। उनके मन तथा इन्द्रियाँ रंचमात्र भी सन्तुष्ट नहीं होती थीं ॥९७-९८। जिस प्रकार मनुष्योंके जोड़े कल्पवृक्ष सम्बन्धी आहारोंसे सन्तुष्ट हो प्रेमपूर्वक क्रीड़ा करते हैं उसी प्रकार सन्तुष्ट चित्तके धारक तियंचोंके जोड़े भी प्रेमपूर्वक क्रीड़ा करते थे ॥९९।। उस समय कहीं सिंहोंके युगल, कहीं हाथियोंके युगल, कहीं ऊंटोंके युगल, कहीं शूकरोंके युगल, और कहीं मदसे धीमी चाल चलनेवाले व्याघ्रोंके युगल क्रीड़ा करते थे ॥१००॥ कहीं मनुष्योंके बराबर आयुको धारण करनेवाले गाय, घोड़े
और भैंसोंके जोड़े अपनी इच्छानुसार अत्यधिक क्रीड़ा करते थे।॥१०१॥ वह पुरुष स्त्रीको आर्या और स्त्री पुरुषको आर्य कहती थी। यथार्थमें भोगभूमिज स्त्री-पुरुषोंका वह साधारण नाम है।।१०२॥ उस
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