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हरिवंशपुराणे परस्परकराश्लेषरागमूछितमूर्तिभिः । मणिजातिविशेषैर्भाति प्रेमवशैरिव ॥७॥ पञ्चवर्णसुखस्पर्शसुगन्धरसशब्दकैः । संच्छना राजते क्षोणी तृणैश्च चतुरङ्गलैः ॥७॥ पूर्णैर्दधिमधुक्षीरघृतेक्षुरससजलैः । रत्नरोधोभिाऽभाद् दिव्यवापीसरोवरैः ॥७॥ नानावर्णमणिच्छौः सौवणः प्राणिसौख्यदैः । रम्यैः क्षोणीधरैः क्षोणी भ्राजते नितरी सदा ॥७९॥ ज्योतिर्गृहप्रदीपाङ्गैस्तूर्यभोजनभाजनैः । वस्त्रमाल्याङ्गमूषाङ्गमद्याङ्गैश्च द्रुमैरमात् ॥८॥ ज्योतिरङ्गनुमा ज्योतिश्छन्नचन्द्रार्कमण्डलाः । अहोरात्रकृतं भेदं मिन्दन्तो मान्ति संततम् ॥४१॥ सोद्यानभूमयश्चित्राः प्रासादाः बहुभूमयः । गृहाङ्गद्रुमखण्डोत्था मण्डयन्ति नभोऽङ्गणम् ॥४२॥ विशालायतशाखामिः पनकुड्मलपल्लवान् । धारयन्ति प्रदीपाभान् प्रदीपाङ्गमहीरुहाः ॥८३॥ चतुर्विधं शुभ वाद्यं ततं च विततं धनम् । सुषिरं च सृजन्त्यत्र सूर्याङ्गदुमजातयः ॥८४॥ षड्रसान्यतिमृष्टानि चतुर्भेदानि भोगिनाम् । भोजनाङ्गगुमा नानामोजनानि सृजन्ति ते ।।८५॥ पात्राणि स्थालकं चोलसौवर्णादीन्यनेकशः । भाजनानि विचित्राणि भाजनाङ्गाः सृजन्त्यलम् ॥८६॥ पट्टचीनद्कलानि वस्त्राणि विविधानि वै । बिभ्राणाः स्कन्धशाखासु भान्ति वस्त्राङ्गपादपाः ॥८७॥
सूर्यकान्तकी किरणें गर्मीसे पीड़ित हैं इसलिए चन्द्रकान्तकी शीतल किरणोंको नहीं छोड़ना चाहती थीं ॥७५॥ जिस प्रकार प्रेमके वशीभत हए मनुष्य परस्पर कराश्लेष अर्थात हाथोंका आलिंगन करते हैं और राग अर्थात् प्रेमसे उनके शरीर मूच्छित रहते हैं, उसी प्रकार यहाँके नाना प्रकारके मणि भी परस्पर कराश्लेष अर्थात् किरणोंका आलिंगन करते हैं और राग अर्थात् रंगसे उनकी आकृति मूच्छित-वृद्धिंगत होती रहती है। इस प्रकार जो प्रेमके वशीभूतके समान जान पड़ते थे ऐसे मणियोंसे यह भूमि अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥७६॥ जिनका वणं पांच प्रकारका था, स्पर्श सुखकारी था तथा गन्ध, रस और शब्द जिनके उत्तम थे ऐसे चार अंगुल प्रमाण तृणोंसे ढकी हुई यहाँकी भूमि सुशोभित हो रही थी ॥७७|| जो दही, मधु, दूध, घी और ईखके समान स्वादवाले उत्तम जलसे भरे हुए थे तथा जिनके तट रत्ननिर्मित थे ऐसी सुन्दर-सुन्दर बावाड़यों और सरोवरोंसे वह भूमि अत्यधिक सुशोभित थी ॥७८॥ रंग-बिरंगे मणियोंसे आच्छादित एवं प्राणियोंको सुख देनेवाले सुवर्णमय सुन्दर पर्वतोंसे यह भूमि सदा अत्यधिक सुशोभित रहती थी ॥७९॥ १ ज्योतिरंग, २ गृहांग, ३ प्रदीपांग, ४ तूर्यांग, ५ भोजनांग, ६ भाजनांग, ७ वस्त्रांग, ८ माल्यांग, ९ भूषणांग और १० मद्यांग जातिके कल्पवृक्षोंसे वह भूमि सदा सुशोभित रहती थी ।।८०॥ जिन्होंने अपनी कान्तिसे चन्द्रमा और सूर्यके मण्डलको आच्छादित कर रखा था ऐसे ज्योतिरंग जातिके कल्पवृक्ष दिन-रातका'भेद दूर करते हुए सदा सुशोभित रहते थे ॥८१।। जो बाग-बगीचोंसे सहित थे तथा जिनमें अनेक खण्ड थे ऐसे गृहांग जातिके कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए नाना प्रकारके वृक्ष आकाशरूपी आँगनको सुशोभित कर रहे थे ।।८२।। प्रदीपांग जातिके कल्पवृक्ष अपनी लम्बी-चौड़ी शाखाओंसे दीपकके समान आभावाले कमलकी बोड़ियोंके आकार नये-नये पत्तोंको धारण कर रहे थे ।।८३॥ यहाँ जो तगि जातिके कल्पवक्ष थे वे तत, वितत, धन और सुषिरके भेदसे चार प्रकारके शुभ बाजोंको सदा उत्पन्न करते रहते थे ।।८४॥ भोजनांग जातिके कल्पवृक्ष भोगी मनुष्योंके लिए छह प्रकारके रसोंसे परिपूर्ण, अत्यन्त स्वादिष्ट तथा अन्न, पान, खाद्य और लेह्यके भेदसे चार भेदवाले नाना प्रकारके भोजनको उत्पन्न करते रहते थे ।।८५॥ भाजनांग जातिके कल्पवृक्ष मणि एवं सुवर्णादिसे निर्मित थाली, कटोरा आदि अनेक प्रकारके बर्तन उत्पन्न करते थे ।।८६।। वस्त्रांग जातिके कल्पवृक्ष अपनी पींड तथा शाखाक्षोंपर पाट, चीनी तथा रेशम आदिके बने हुए नाना प्रकारके वस्त्र धारण करते हुए १. रत्नभासुराः क.।
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