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हरिवंशपुराणे कोटीकोव्यो दामीषां पल्यानां सागरोपमा । ताभ्यामर्द्धतृतीयाभ्यां द्वीपसागरसमितिः ॥५१॥ सोऽध्वा द्विगुणितो रज्जुस्तनुवातोभयान्तभाग् । निष्पद्यते त्रयो लोकाः प्रमीयन्ते बुधैस्तथा ॥५२॥ असंख्यवर्षकोटोनां समयै रोमखण्डितः । उद्धारपल्यमद्धाख्यं स्यात्कालोऽद्धाभिधीयते ॥५३॥ कालः पल्योपमाख्योऽसौ समयं समयं प्रति । क्षीयमाणः प्रमाणार्थमायुषो विनियुज्यते ॥५४॥ कोटीकोव्यो दशामीषां जायते सागरोपमा । मेया संसारिणां चामिरायुःकर्मभवस्थितिः ॥५५॥ कोटीकोव्यो दर्शतासां प्रत्येकमवसर्पिणी । उत्सर्पिणी च कालाः षट प्रत्येकमनयोः समाः ॥५६॥ अवसर्पति वस्तूनां शक्तिर्यत्र क्रमेण सा । प्रोक्ताऽवसर्पिणी सार्था सान्यथोत्सर्पिणो तथा ॥५७॥ सुषमासुषमाऽऽद्या स्यात् द्वितीया सुषमा समा । दुःषमासुषमाऽऽद्या स्यात् सुषमादुःषमादिका ॥५८॥ दुःषमा चावसर्पिण्यामतिदुःषमया सह । ता एवं प्रतिलोमाः स्युरुत्सर्पिण्यां च षट् समा ॥५९॥ कोटीकोट्यश्चतस्रश्च तिस्रो द्वे च यथाक्रमम् । आदितस्तिसृणां तापां प्रमाण सागरोपमाः ॥६०॥ द्वाचत्वारिंशदब्दानां सहस्रः परिवर्जिता । कोटी कोटीसमुदाणां तुरीयस्य यथाक्रमम् ॥६॥ तानि वर्षसहस्राणि विभक्कानि समं भवेत् । पञ्चमस्य च षष्ठस्य प्रमाणं कालवस्तुनः ॥६२॥
कल्पस्ते द्वे तथार्थानां वृद्धि हानिमती स्थितिः । मरतेरावतक्षेत्रेष्वन्येष्वपि ततोऽन्यथा ॥६३॥ एक-एक समयमें एक-एक टुकड़ा निकालनेपर जितने समय में वह गर्त खाली हो जाये उतने समयको उद्धारपल्योपम काल कहते हैं ॥५०॥ दश कोड़ाकोड़ो उद्धारपल्योंका एक उद्धार सागर होता है और ढाई उद्धार सागरोपम काल अथवा पचीस कोड़ाकोड़ो उद्धारपल्योंके बालोंके जितने टुकड़े हों उतने द्वीपसागरोंका प्रमाण है ॥५१॥ द्वीपसागरोंका जो अध्वा अर्थात् एक दिशाका विस्तार है उसे दुगुना करनेपर रज्जुका प्रमाण निकलता है। यह रज्जु दोनों दिशाओंके तनुवातवलयके अन्त भागको स्पर्श करती है। विद्वान् लोग इसके द्वारा तीन लोकोंका प्रमाण निकालते हैं ॥५२।। उद्धार पल्यके रोम खण्डोंके असंख्यात करोड़ वर्षों के समय बराबर बुद्धि द्वारा खण्ड कल्पित किये जावें और उनसे पूर्वोक्त गतंको भरा जाये। इस गर्तको अद्धा पल्य कहते हैं। उनमें से एक-एक समयके बाद एक-एक टुकड़ाके निकालनेपर जितने समयमें वह खाली हो जाये उतने समयको अद्धापल्योपम काल कहते हैं । आयुका प्रमाण बतलाने के लिए इसका उपयोग होता है ।।५३-५४॥ दश कोड़ाकोड़ी अद्धापल्योंका अद्धासागर होता है, इसके द्वारा संसारी जीवोंको आयु, कर्म तथा संसारको स्थिति जानी जाती है ॥५५॥ दश कोड़ाकोड़ी अद्धासागरोंकी एक अवसर्पिणी तथा उतने ही सागरोंकी एक उत्सपिणी होती है। इनमें प्रत्येकके छह-छह भेद हैं ॥५६।। जिसमें वस्तुओंकी शक्ति क्रमसे घटती जाती है उसे अवसपिणी और जिसमें बढ़ती जाती है उसे उत्सर्पिणी कहते हैं। इनका अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नाम सार्थक है ॥५७॥ १ सुषमासुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमादुःषमा, ४ दुःषमासुषमा, ५ दुःषमा और ६ दुःषमादुःषमा ये अवसर्पिणोके छह भेद हैं और इससे उलटे अर्थात् १ दुःषमादुःषमा, २ दुःषमा, ३ सुषमादुःषमा, ४ दुःषमासुषमा, ५ सुषमा और ६ सुषमासुषमा ये छह उत्सर्पिणीके भेद हैं ।।५८-५९।। प्रारम्भके तीन कालोंका प्रमाण क्रमसे चार कोड़ाकोड़ी सागर, तीन कोडाकोड़ी सागर और दो कोडाकोड़ी सागर है ।।६०॥ चौथे कालका प्रमाण बयालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागर है और पाँचवें तथा छठे कालका प्रमाण इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है ॥६१-६२।। जिस प्रकार दश कोड़ाकोड़ी सागरका अवसर्पिणी काल है उसी प्रकार दश कोड़ाकोड़ी सागरका उत्सर्पिणी काल है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों
१. दर्शतेषां क.। २. द्वीपसागरप्रमाणम् । ३. द्वीपसाराणामेकस्मिन् दिशि मर्यादामार्गः अध्वा कथ्यते । . ४. निष्पद्यन्ते म., ग., ङ., क.। ५. द्वाचत्वारिंशद्वर्षसहस्राणि विभक्कानि द्विधाकृतानि अर्थात एकविंशति
वर्षसहस्राणि । ६. उत्सपिण्यवसपिण्यो।
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