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हरिवंशपुराणे
ऊहाङ्गमूहमप्यस्मालताङ्गं च लताह्वयम् । महालताङ्गसंज्ञ स्यात् कालवस्तु महालता ॥ १९ ॥ शिरःप्रकम्पितं प्रोक्तं ततो हस्तप्रहेलिका | चर्चिकेत्यादिकः कालः संख्येयः परिभाषितः ॥३०॥ वर्ष संख्याव्यतिक्रान्तः कालोऽसंख्येय इष्यते । पल्यसागरसंख्यानं कल्पानन्तादिभेदवान् ॥ ३१ ॥ "आदिमध्यान्तनिर्मुक्तं निर्विभागमतीन्द्रियम् । मूर्त्तमप्यप्रदेशं च परमाणुं प्रचक्षते ॥३२॥ एकदैकं रसं वर्ण गन्धं स्पर्शावबाधकौ । दधत् स वर्ततेऽभेद्यः शब्द हेतुरशब्दकः ॥३३॥ आशङ्कया नार्थतत्त्वज्ञ र्नभःशानां समन्ततः । षट्केन युगपद्योगात्परमाणोः षडंशता ॥३४॥ स्वल्पाकाशषडंशाश्च परमाणुश्च संहताः । सप्तांशाः स्युः कुतस्तु स्यात्परमाणोः षडंशता ||३५|| वर्णगन्धरसस्पर्शैः पूरणं गलनं च यत् । कुर्वन्ति स्कन्धवत्तस्मात् पुद्गलाः परमाणवः ॥ ३६ ॥ "अनन्तानन्तसंख्यानपरमाणुसमुच्चयः । अवसंज्ञादिकांसंज्ञा स्कन्धजातिस्तु जायते ||३७|| ताभिरष्टाभिरप्युक्ता संज्ञासंज्ञादिका तथा । ताभिरप्यष्ट संज्ञाभिस्तुटिरेणुः स्फुटीकृतः ||३८||
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अमम,
अटटांगों का एक अटट, चौरासी लाख अटटोंका एक अममांग, चौरासी लाख अममांगों का एक चौरासी लाख अममोंका एक ऊहांग, चौरासी लाख ऊहांगों का एक ऊह, चौरासी लाख ऊहों का एक लतांग, चौरासी लाख लतांगों की एक लता, चौरासी लाख लतांगों का एक महालतांग, चौरासी लाख महालतांगोंकी एक महालता, चौरासी लाख महालताओंका एक शिरः प्रकम्पित, चौरासी लाख शिरःप्रकम्पितोंकी एक हस्त प्रहेलिका और चौरासी लाख हस्त प्रहेलिकाओंकी एक चर्चिका होती है । इस प्रकार चर्चिका आदिको लेकर संख्यात काल कहा गया है || १९-३०॥ जो वर्षों की संख्यासे रहित है वह असंख्येय काल माना जाता है । इसके पल्य, सागर, कल्प तथा अनन्त आदि अनेक भेद हैं ||३१||
जो आदि, मध्य और अन्त से रहित है, निर्विभाग है, अतीद्रिय है और मूर्त होनेपर भी अप्रदेश - द्वितीयादिक प्रदेशोंसे रहित है उसे परमाणु कहते हैं ||३२|| वह परमाणु एक काल में एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और परस्परमें बाधा नहीं करनेवाले दो स्पर्शोको धारण करता है, अभेद्य है, शब्दका कारण है और स्वयं शब्दसे रहित है ||३३|| पदार्थंके स्वरूपको जाननेवाले लोगों को ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए कि सब ओरसे एक समय आकाशके छह अंशोंके साथ सम्बन्ध होनेसे परमाणुमें षडंशता है || ३ ४ || क्योंकि ऐसा माननेपर आकाशके छोटे-छोटे छह अंश और एक परमाणु सब मिलकर सप्तमांश हो जाते हैं । अब परमाणु में षडंशता कैसे हो सकती है ? ||३५|| क्योंकि परमाणु रूप, गन्ध, रस और स्पर्शके द्वारा पूरण तथा गलन करते रहते हैं इसलिए स्कन्धके समान परमाणु पुद्गल द्रव्य हैं ||३६|| अनन्तानन्त परमाणुओं के समूह - को अवसंज्ञ कहते हैं । ये अवसंज्ञ आदि स्कन्धकी ही जातियाँ हैं ||३७|| आठ अवसंज्ञाओंकी १. अंतादिमज्झहीणं अपदेशं इंदियेहि गहु गेज्झं । जं दव्वं अविभत्तं तं परमाणुं वदंति जिणा ||९८॥ २. परमाणूहि अनंताणंतेहि बहुविहेहि देहि |
अवसण्णासण्णोत्ति सो खंधो होइ णामेण ॥ १०२ ॥ उवसण्णासण्णो वि य गुणिदो अट्ठेहि होदि णामेण । सणासण्णोति तदो दु इदि खंधो पमाणट्टं ॥ १०३ ॥ अहि गुणिदेहि सणासह होदि तुडिरेणु । तित्तियमेत्तहदेहि तु डिरेणूहि पितसरेणु ॥ १०४ ॥ तसरेणू रथ रेणू उत्तमभोगावणीए बालगं ।
मज्झिमभोगविदीएं घोलं पि जहण भोगखिदिवालं ।। १०५ ।। इत्यादि
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- त्रै. प्र.
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