________________
सप्तमः सर्गः
वर्णगन्धरसस्पर्शमुक्तोऽगौरवलाघवः । वर्तनालक्षणः कालो मुख्यो गौणश्च स द्विधा ॥१॥ गतिस्थित्यवगाहानां धर्माधर्माम्बराणि च । निमित्तं सर्वमावानां वर्तनस्यात्र निश्चयः ॥२॥ धर्माधर्मनभोद्रव्यं यथैवागमदृष्टितः । तथा निश्चयकालोऽपि निश्चेतव्यो विपश्चिता ॥३॥ जीवानां पुदगलानां च परिवत्तिरनेकधा । गौणकालप्रवृत्तिश्च मुख्यकालनिबन्धना ॥४॥ सर्वेषामेव मावानां परिणामादिवृत्तयः । स्वान्तर्बहिनिमित्तेभ्यः प्रवर्तन्ते समन्ततः ॥५॥ निमित्तमान्तरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता । बहिनिश्चयकालस्तु निश्चितस्तत्त्वदर्शिभिः ॥६॥ अन्योन्यानुप्रवेशेन विना कालाणवः पृथक । लोकाकाशमशेषं तु व्याप्य तिष्ठन्ति संचिताः ॥७॥ द्रव्यानिर्विकारस्वादुदयव्ययवर्जिताः । नित्या एव कथंचित्ते स्वरूपसमवस्थिताः ॥८॥ अगुरुत्वलघुत्वात्मपरिणामसमन्विताः । परोपाधिविकारित्वादनित्यास्तु कथंचन ॥९॥ त्रिधा समयवृत्तीनां हेतुत्वात्ते त्रिधा स्मताः । अनन्तसमयोत्पादादनन्तव्यपदेशिनः ।।१०॥ तेभ्यः कारणभूतेभ्यः समयस्य समुद्भवः । कारणेन विना कार्य न कदाचित् प्रजायते ॥११॥ स्वत एवाऽसतो जन्म कार्यस्य यदि जायते । स्वत एव हि किं न स्यात् ख़रशृङ्गस्य संभवः ॥१२॥ न कालादन्यतो हेतोः कालकार्यसमुद्भवः । न हि संजायते जातु शालिबीजाद् यवाकुरः ॥१३॥
रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसे रहित व हलका व भारी और वर्तना लक्षणसे युक्त कालद्रव्य है। वह मुख्य और गौणके भेदसे दो प्रकारका है।।१।। जिस प्रकार जीव और पुद्गलके गमन करने में धर्म द्रव्य, ठहरनेमें अधर्म द्रव्य और समस्त द्रव्योंको अवगाह देनेमें आकाश द्रव्य निमित्त है उसी प्रकार समस्त द्रव्योंकी वर्तना--षड्गुणी हानि-वृद्धिरूप परिणमनमें निश्चय कालद्रव्य निमित्त है ।।२।। जिस प्रकार धर्म-अधर्म और आकाशद्रव्यका आगमदृष्टिसे निश्चय किया जाता है उसी प्रकार विद्वानोंको काल द्रव्यका भी निश्चय करना चाहिए ॥३।। जीव और पुद्गलोंका परिणमन नाना प्रकारका होता है और गौण कालकी प्रवृत्ति मुख्य कालके कारण है ।।४।। समस्त पदार्थों में जो परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्वरूप परिणमन होते हैं वे अपने-अपने अन्तरंग तथा बहिरंग निमित्तोंसे ही सब ओर प्रवृत्त होते हैं ।।५।। उन अन्तरंग, बहिरंग निमित्तोंमें अन्तरंग निमित्त तो वस्तुकी अपनो योग्यता है जो सदा उसमें स्थित रहती है और बाह्य निमित्त निश्चय कालद्रव्य है ऐसा तत्त्वदर्शी आचार्योंने निश्चित किया है ।।६।। परस्परके प्रवेशसे रहित कालाणु पृथक्-पृथक् समस्त लोकको व्याप्त कर राशिरूपमें स्थित हैं ॥७॥ द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा कालाणुओंमें विकार नहीं होता इसलिए उत्पाद-व्ययसे रहित होनेके कारण वे कथंचित् नित्य हैं और अपने स्वरूपमें स्थित हैं ||८| अगुरु लघु गुणके कारण उन कालाणुओंमें प्रत्येक समय परिणमन होता रहता है तथा परपदार्थके सम्बन्धसे वे विकारी हो जाते हैं इसलिए पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा कथंचित् अनित्य भी है|९|| भूत, भविष्य और वर्तमानरूप तीन प्रकारके समयका कारण होनेसे वे कालाणु तीन प्रकारके माने गये हैं और अनन्त समयोंके उत्पादक होनेसे अनन्त भी कहे जाते हैं ।।१०।। उन कारणभूत कालाणुओंसे समयकी उत्पत्ति होती है सो ठीक ही है क्योंकि कारणके बिना कभी कार्य उत्पन्न नहीं होता ॥११॥ यदि असद्भूत कार्यको उत्पत्ति कारणके बिना स्वयं ही होती है तो फिर गधेके सींगकी उत्पत्ति स्वयं ही क्यों नहीं हो जाती ? ॥१२॥ कालके सिवाय अन्य कारणसे कालरूप कार्यको उत्पति नहीं होती क्योंकि धानके बीजसे कभी जौका अंकुर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org