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हरिवंशपुराणे
पर्यन्तेऽङ्गुल संखयेय भागमात्रतनुस्थितिः । सोत्तानित महावृत्तश्वेतच्छत्रोपमाकृतिः॥१२८॥ चत्वारिंशत् विस्तारो लक्षाः पञ्चभिरर्चिताः । योजनानि क्षितेस्तस्या विद्वद्भिरभिधीयते ॥१२९॥ कोटी तुपरिधिर्लक्षा द्विचत्वारिंशदिष्यते । द्विशत्येकान्नपञ्चाशत् त्रिसहस्री दशाहता ॥ १३०॥ ऊर्ध्वं तस्याः पुरा प्रोक्तं यद्वातवलयत्रयम् । तत्र त्रिकोशबाहुल्यमतीत्य वलयद्वयम् ॥ १३१ ॥ धनुषां पञ्चशस्यामा पञ्चसप्ततियुक्तया । धनुः सहस्रमेकं हि बहलं वळयं तु यत् ॥ १३२ ॥ तनुवातस्य तस्यान्ते पञ्चविंशतिसंयुताम् । विगाह्योत्कर्षतः सिद्धाः स्थिताः पञ्चधनुःशतीम् ॥ १३३॥ सार्द्धहस्तत्रयं पूर्वं कृत्वान्तेऽनन्तरोच्छ्रुितिम् । सिद्धावगाहनाकाशदेशो देशोन इष्यते ॥ १३४॥ एकोऽवतिष्ठते यत्र सिद्धः सिद्धप्रयोजनः । तत्रानन्ताश्च तिष्ठन्ति सिद्धास्ते स्वावगाहतः ॥ १३५ ॥ अशरीराः सुखात्मानः सिद्धा जीवघनायुताः । साकारेणोपयोगेन निराकारेण चात्मनः ॥ १३६ ॥ सर्वलोकमलोकं च संततानन्तपर्ययम् । जानन्तः सह पश्यन्तस्तिष्ठन्ति सुखिनः सदा ॥ १३७॥ सिद्धाः शुद्धाः प्रबुद्धार्था विजन्मानोऽजरानराः । शास्त्रताः 'शाश्वतं स्थानमधितिष्टन्त्यबन्धनाः ॥१३८॥
मन्दाक्रान्ता
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ज्योतिर्लोकप्रकटपटलस्वर्गमोक्षोर्ध्वलोक
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प्रज्ञप्त्युक्तं नरवर मया संग्रहाक्षेत्रमेवम् ।
संप्रोक्तं ते श्रवणसुभगं श्रेणिक श्रेयसेऽतः
वायुष्मन्नवहितमतिर्वच्मि कालोपदेशम् ॥१३९॥
कहलाती है । यह पृथिवी मध्यमें आठ योजन मोटी है उसके आगे क्रमसे कम कम होती हुई अन्त भाग में अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अत्यन्त सूक्ष्म रह जाती है, वह ऊपरकी ओर उठे हुए विशाल गोल सफेद छत्रके आकार है ।। १२७- १२८ || विद्वज्जन उस पृथिवीका विस्तार पैंतालीस लाख योजन बतलाते हैं ॥ १२९ ॥ उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन है || १३०।। उस पृथिवीके ऊपर पहले कहे हुए तीन वातवलय हैं, उनमें तीन कोश विस्तारवाले दो वलयोंका उल्लंघन कर एक हजार पाँच सौ पचहत्तर धनुष विस्तारवाला जो तीसरा तनुवातवलय है। उसके पाँच सौ पच्चीस धनुष मोटे अन्तिम भागको अपनी उत्कृष्ट अव गाहनासे व्याप्तकर सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। जिन सिद्ध भगवान्का अनन्तर पूर्वं शरीर साढ़े तीन हाथ ऊँचा रहता है उनकी अवगाहना सम्बन्धी आकाशका प्रदेश साढ़े तीन हाथसे कुछ कम माना जाता है ॥१३१ - १३४|| जहाँ कृतकृत्य अवस्थाको प्राप्त हुए एक सिद्ध भगवान् विराजमान हैं वहीं अपनी अवगाहनासे अनन्त सिद्ध परमेष्ठी स्थित है । भावार्थ - अवगाह दानकी सामर्थ्यं होने से सिद्ध परमेष्ठी एक दूसरेको बाधा नहीं पहुँचाते इसलिए जहाँ एक सिद्ध है वहीं अनन्त सिद्ध विराजमान रहते हैं ॥ १३५ ॥ | ये सिद्ध परमेष्ठी शरीररहित हैं, सुख रूप हैं, जीवके घन प्रदेशों से युक्त हैं और अपने ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोगके द्वारा अनन्त पर्यायोंसे युक्त समस्त लोक और अलोकको एक साथ जानते हुए सदा सुखसे स्थिर रहते हैं ॥१३६ - १३७॥ जो कर्म कलंकसे रहित होने के कारण शुद्ध हैं, अनन्त ज्ञानसे सम्पन्न होनेके कारण जिन्होंने समस्त पदार्थोंको जान लिया है, जो आयुकमंसे रहित होनेके कारण नूतन जन्मसे रहित हैं, शरीर रहित होनेके कारण अजरअमर हैं, मोहजन्य विकारसे रहित होनेके कारण जो कर्मबन्धनसे दूर हैं और स्वाश्रित होनेसे शाश्वत हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी उस शाश्वत - अविनश्वर स्थानपर सदा विद्यमान रहते हैं ॥ १३८ ॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे नररत्न श्रेणिक ! इस प्रकार हमने तेरे कल्याणके लिए १. निश्चलं ख. । २. 'ज्योतिर्लोकः प्रकटपटलस्वर्ग मोक्षोर्ध्वलोकः म । ३. संग्रहाक्षेपमेवं ख. ।
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