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हरिवंशपुराणे द्विहानिक्रमतोऽतोऽग्रे दक्षिणोत्तरसंभवाः । सुराधीशाः सुखाम्मोधिमध्यगा गतविद्विषः॥१०२॥ भाज्योतिर्लोकमुत्पादस्तापसानां तपस्विनाम् । ब्रह्मलोकावधिज्ञेयः परिव्राजकयोगिनाम् ॥१०॥ सदगाजीवकानां च सहस्रारावधिर्मवः । न जिनेतरदृष्टेन लिङ्गेन तु ततः परम् ॥१०४। कल्पानच्युतपर्यन्तान् सौधर्मप्रभृतीन् पुनः । व्रजन्ति श्रावकास्तेभ्यः श्रमणाः परतोऽपि च ॥१०५॥ उपपादोऽस्त्यमव्यानामग्रग्रेवेयकेष्वपि । स च निर्ग्रन्थलिङ्गेन संगतोऽग्रतपःश्रिया ॥१०६॥ रस्नत्रयसमृद्धस्य मव्यस्यैव ततः परम् । यावरसर्वार्थसिद्धिं स्यादुपपादस्तपस्विनः ।।१०७॥ . कृष्णा नीला च कापोता लेश्यात द्रव्यमावतः । तेजोलेश्या जघन्या च ज्योतिषान्तेषु भाषिताः ॥१०॥ सौधर्मशानदेवानां तेजोलेश्या तु मध्यमा । सैवोत्कृष्टोत्तरद्वन्द्वे पद्मलेश्या जघन्यतः ॥१०९|| मध्यमा पद्मलेश्या तु परस्मिन् युगलत्रये । उत्कृष्टा पद्मलेश्या च युग्मे शुक्लावरापरे ॥११॥ अच्युतान्तचतुष्के च नवप्रैवेयकेषु च । सर्वेषामेव देवानां शुक्ललेश्या तु मध्यमा ॥१११॥ अहमिन्द्रविमानेषु चतुर्दशसु संस्थिताः । लेश्या परमशुक्लोज़ संक्लेशरहितात्मनाम् ॥११२॥
विमानोंमें इन्द्रोंका निवास है। पहले युगलके अन्तिम इन्द्रक सम्बन्धी अठारहवें श्रेणीबद्ध विमानमें इन्द्रका निवास है और आगे दो-दो श्रेणीबद्ध विमानोंको क्रमिक हानि है। १ सौधर्म.२ सनत्कमार, ३ ब्रह्म, ४ शुक्र, ५ आनत और ६ आरण कल्पोंमें रहनेवाले इन्द्र दक्षिण दिशामें रहते हैं और १ ऐशान, २ माहेन्द्र, ३ लान्तव, ४ शतार, ५ प्राणत और ६ अच्युत इन छह कल्पोंमें रहनेवाले उत्तर दिशामें रहते हैं । ये इन्द्र सुखरूपी सागरके मध्यमें स्थित हैं तथा प्रतिद्वन्द्वियोंसे रहित हैंभावाधं-सौधर्म स्वर्गके अन्तिम पटलके इन्द्रक विमानसे दक्षिण दिशामें जो अठारहवां श्रेणीबद्ध विमान है उसमें सौधर्मेन्द्र रहता है और उत्तर दिशामें जो अठारहवां श्रेणीबद्ध विमान है उसमें ऐशानेन्द्र रहता है। सनत्कुमार इन्द्र अपने स्वर्गके अन्तिम पटल सम्बन्धी इन्द्रकसे दक्षिण दिशा सम्बन्धी सोलहवें श्रेणीबद्ध विमानमें रहता है और माहेन्द्र उत्तर दिशा सम्बन्धी । इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए ॥१०१-१०२।। पंचाग्नि आदि तप तपनेवाले तपस्वियोंकी उत्पत्ति भ व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें होती है, परिव्राजक-संन्यासियोंकी उत्पत्ति ब्रह्मलोक तक और सम्यग्दृष्टि आजीवकोंकी उत्पत्ति सहस्रार स्वर्ग तक हो सकती है। जिन-लिंगके सिवाय अन्य लिंगके द्वारा जीव सहस्रार स्वर्गके आगे नहीं जा सकते यह नियम है ॥१०३-१०४|| श्रावक सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्युत स्वगं तक जाते हैं और मुनि उसके आगे भी जा सकते हैं ॥१०५।। अभव्य जीवोंका उपपाद अग्निम ग्रैवेयक तक हो सकता है, परन्तु यह नियम है कि प्रैवेयकोंमें उपपाद निर्ग्रन्थ लिंगके द्वारा उग्र तपश्चरण करनेसे ही हो सकता है ॥१०६।। इसके सर्वार्थ-सिद्धि तक रत्नत्रय तपस्वी भव्य जीवकी ही उत्पत्ति होती है ॥१०७।।
भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषो देवोंमें द्रव्य तथा भावको अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोतलेश्या तथा जघन्य पीतलेश्या होती है ॥१०८|| सौधर्म और स्वर्गके देवोंके मध्यम पीतलेश्या होती है। माहेन्द्र स्वर्गके देवोंके उत्कृष्ट पीतलेश्या और जघन्य पद्मलेश्या होती है ॥१०९।। इसके आगे तीन युगलोंमें मध्यम पद्मलेश्या होती है। उसके आगे दो युगलोंमें उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या होती है। तदनन्तर अच्युत स्वगं तकके चार स्वर्गों और नौ ग्रैवेयकोंके समस्त देवोंके मध्यम शुक्ललेश्या होती है और उसके आगे अनुदिश और अनुत्तर सम्बन्धी अहमिन्द्रोंके चौदह विमानोंमें परम शुक्ललेश्या होती है। यहाँके निवासी अहमिन्द्र संक्लेशसे रहित होते हैं ।।११०-११२।।
१. सर्वार्थसिद्धिः
क., ख., ग., ङ.।
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