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हरिवंशपुराणे एकविंशतिरूवं तु त्रिके सप्तदशत्रिमिः। दशश्रेणीगतान्येव नवपञ्चकतत्परम् ॥७६॥ एतेषु तु विशुद्धेषु यथास्वं मूलराशिषु । प्रकीर्णकविमानानि शेषाणीति बुधा विदुः ॥७७॥ तेषु संख्येयविस्तारा विमानव्यक्तयः पुनः । चत्वारिंशत्सहस्राणि 'सौधर्मे नियुतानि षट् ।।७८॥ पञ्चैव नियुतानि स्युः करले चैशाननामनि । सह षष्टिसहस्रस्तु संयुतानि तु तानि वै ॥७९॥ सनत्कुमारकरपे तु नियतं नियुनद्वयम् । चत्वारिंशत्सहस्रेस्तु सहितं तदिति स्मृतिः ॥८॥ 'माहेन्द्रे नियुतं प्रोक्तं सह पष्टिसहस्रकैः । ब्रह्म ब्रह्मोत्तरेऽशीतिसहस्राणि सहैव तु ॥४१॥ लान्तवेऽपि च कापिष्ठे सहस्राणि दशैव तु । चत्वारि तु सहस्राणि चतुर्मिः शुक्रनामनि ॥४२॥ षण्णवत्या नवशती त्रिसहस्री महत्यपि । शतारे च सहस्रारे द्वादशैव शतानि तु ।।८३॥ अष्टाशीतिः सहैव स्यादानतप्राणताख्ययोः। द्विपञ्चाशत्सहैव स्यादारुणाच्युतकल्पयोः ॥८४॥ सर्वत्रैवात्र संख्येयविस्तारास्तु चतुर्गणाः । असंख्येयात्मविस्तारा विमानव्यक्तयः स्मृताः ॥८५॥ यथास्वमिन्द्रकैहींना नवप्रैवेयकादिषु । स्युरसंख्येयविस्तारा श्रेणीष्वन्यास्तु ता द्विधा ॥८६॥ लक्षाः षोडशसंख्येयविस्तृता नवतिर्नव । सहस्राणि सहाशीत्या त्रिशती पिण्डितास्तु ताः ॥८॥ षट्शतैकानेपंञ्चाशत् सप्तभिर्नवतिः'' पुनः । सहस्राणीतरा लक्षाः सप्तषष्टिरुदीरिताः ॥८॥ प्राग्भारभूनरक्षेत्रमृतुः सीमन्तकः समम् । विस्तारेण तु" संप्राप्तो बालमात्रेण चूलिकाम् ॥४९॥ जम्बूद्वीपाप्रतिष्ठानक्षेत्रसर्वार्थसिद्धयः । योऽपि समविस्ताराः प्रोक्ता विस्तारवेदिभिः ॥१०॥
पाँच श्रेणी-बद्ध विमान हैं। विमान संख्याकी मूल राशिमें-से इन इन्द्रक और श्रेणी-बद्ध विमानोंकी संख्या घटा देनेपर जो शेष बचते हैं वे प्रकीर्णक विमान हैं ऐसा विद्वज्जन जानते हैं ।।७४-७७||
उन विमानोंमें संख्यात योजन विस्तारवाले विमानोंकी संख्या सौधर्म स्वर्गमें छह लाख चालीस हजार है। ऐशान स्वर्गमें पांच लाख साठ हजार, सनत्कुमार स्वर्गमें दो लाख चालीस हजार, माहेन्द्र स्वर्गमें एक लाख साठ हजार, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें अस्सी हजार, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गमें दश हजार, शुक्र स्वर्गमें चार हजार चार, महाशुक्र स्वर्गमें तीन हजार नौ सौ छियानबे, शतार-सहस्रार स्वर्गमें बारह सौ, आनत-प्राणत स्वर्गमें अठासी, और आरण-अच्युत स्वर्गमें बावन हैं ।।७८-८४।। इन सभी स्वर्गों में संख्यात योजन विस्तारवाले विमानोंकी जो संख्या है उससे चौगुने असंख्यात योजन विस्तारवाले विमान हैं ॥८॥ नव-प्रेवेयकादिकमें इन्द्रक विमानोंको छोड़कर श्रेणी-बद्ध विमानों में संख्यात योजन विस्तारवाले और असंख्यात योजन विस्तारवाले दोनों प्रकारके विमान हैं। इन्द्रक विमान संख्यात योजन विस्तारवाले हो हैं ॥८६॥ संख्यात योजन विस्तारवाले सब विमान मिलाकर सोलह लाख निन्यानबे हजार तीन सौ अस्सी हैं और असंख्यात योजन विस्तारवाले विमान सड़सठ लाख संत्तानबे हजार, छह सौ उनचास कहे गये हैं ॥८७-८८॥ प्रारभार-भूमि ( सिद्धशिला ),ढाई द्वीप, प्रथम स्वर्गका ऋतु विमान, प्रथम नरकका सीमन्तक इन्द्रक विल और सिद्धालय ये पांच विस्तारको अपेक्षा समान हैं अर्थात् सब पैंतालीस लाख योजन विस्तारवाले हैं। इनमें ऋतु विमान बाल मात्रका अन्तर देकर मेरुकी चूलिकाको प्राप्त है अर्थात् चूलिका और ऋतु विमानमें बालमात्रका अन्तर
पर जम्बद्रीप. सातवें नरकका अप्रतिष्ठान नामका इन्द्रक विल और सर्वार्थसिद्धि ये तीनों विस्तारवे जाननेवाले आचार्योंने समान विस्तारसे युक्त कहे हैं अर्थात् इन सबका एक-एक
१. ६४०००० । २. ५६००००। ३. २४००००। ४. १६००००। ५. ८००००। ६.१००००। . ७. ४००४। ८. ३९९६ । ९. 'श्रेणीष्वन्याकृता द्विधा म०। १०. ६४९। ११. ९७०००। १२. तु
शब्दान् मुक्तालयोऽपि, इति क प्रतिटिप्पण्याम् ।
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