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षष्ठः सर्गः
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धर्मध्यानं धवलमुदितं मोक्षहेतुर्जिनेन्द्र
__राज्ञापायप्रभृतिविचयश्चित्तवृत्तेनिरोधः । यत्तत्कार्या समितकरणलोकसंस्थानचिन्ता
मन्दाक्रान्ता न हृदयमदेभेन्द्रियाश्वा विधेयाः ॥१४॥
इत्यरिष्टने मिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृतो ज्योतिर्लोको लोकवर्णनो
नाम षष्ठः सर्गः ॥६॥
ज्योतिर्लोक और अनेक पटलोंसे युक्त स्वर्ग एवं मोक्षसे सहित ऊवं लोकका कथन करनेवाले इस क्षेत्रका संक्षेपसे कर्णप्रिय वर्णन किया है । अब हे आयुष्मन् ! हम कालद्रव्यका कथन करते हैं सो एकाग्रचित्तसे श्रवण कर ॥१३९|| श्रीजिनेन्द्र भगवान्ने आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचयके द्वारा चित्तवृत्तिके निरोध करनेको उज्ज्वल धर्मध्यान कहा है और चूँकि धर्मध्यान मोक्षका कारण है इसलिए इन्द्रियोंको वश करनेवाले पुरुषोंको लोकके संस्थान-आकारका चिन्तन करना चाहिए । आचार्योंने ठीक ही कहा है कि इन्द्रियरूपी मदोन्मत्त हाथी और इन्द्रियरूपी घोड़े मन्द आक्रमण होनेपर वशमें नहीं रहते। भावार्थ-मोक्षाभिलाषी पुरुषोंको मन और इन्द्रियोंको स्वतन्त्र नहीं छोड़ना चाहिए ।।१४०।।
इस प्रकार जिसमें श्रीअरिष्टनेमि जिनेन्द्र के पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराणमें ज्योतिर्लोक तथा ऊर्ध्वलोकका
वर्णन करनेवाला छठा सर्ग समाप्त हुआ ॥६॥
१. भेदेन्द्रियास्वाविधेयाः क., ख., ग., घ.।
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