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हरिवंश पुराणे
मध्यस्था एव सर्वत्र न मित्राणि न शत्रवः । प्रकृत्याल्पकषायित्वाद्यान्ति चायुः क्षये दिवम् ॥ १०४ ॥ सुखमृत्युः क्षुतेः पुंसो जृम्भारम्भेण च स्त्रियाः । जन्मबद्धस्य प्रेमस्य युगलस्य सहैव सः ॥ १०५ ॥ अथ ज्ञाखा गणाधीशः श्रेणिकस्य मनोगतम् । मोगभूमिसमुत्पत्तिनिमित्तमभणीदिति ॥ १०६ ॥ कर्मभूमिगता मर्त्याः प्रकृत्याल्प कषायिगः । अत्र ते पात्रदानात् स्युभगभूमिषु मानुषाः ॥ १०७ ॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपःशुद्धिपवित्रिताः । मध्यस्थाः शत्रुमित्रेषु सन्तो हि पात्रमुत्तमम् ॥१०८॥ मध्यमं तु भवेत्पात्रं संयतासंयता जनाः । जघन्यमुदितं पात्रं सम्यग्दृष्टिरसंयतः ॥१०९ ॥ त्रिविधेऽपि बुधः पात्रे दानं दत्वा यथोचितम् । भोगभूमिसुखं दिव्यं भुङ्क्ते भूत्वा तु मानुषः ||११० ॥ सुक्षेत्रे विधिवत्क्षिप्तं बोजमल्पमपि व्रजेत् । वृद्धिं यथा तथा पात्रे दानमाहारपूर्वकम् ॥ १११ ॥ aritrक्षेत्र निक्षिप्तं यथा मिष्टं पयो मवेत् । धेनुभिश्च यथा पीतं क्षीरत्वं प्रतिपद्यते ॥ ११२ ॥ तथैवाल्परसास्वादमन्नपानौषधादिकम् । पात्रदत्तं परत्र स्यादमृतास्वादमक्षयम् ॥ ११३ ॥ निवृत्ताः स्थूलहिंसादेर्मिथ्यादृग्ज्ञानवृत्तयः । कुपात्रमिति विज्ञेयमपात्रमनिवृत्तयः ॥ ११४ ॥ कुपात्रदानतो भूत्वा तिर्यञ्चो भोगभूमिषु । संभुञ्जतेऽन्तरं द्वीपं कुमानुष कुलेषु वा ॥११५॥ असक्षेत्रे यथा क्षिप्तं बीजमल्पफलं फलेत् । कुपात्रेऽपि तथा दत्तं दानं दात्रे कुभोगभाक् ॥ ११६॥ ऊषरक्षेत्र निक्षिप्तशालिर्नश्यति मूलतः । यथात्र विफलं दानं कुपात्रपतितं तथा ॥ ११७ ॥
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समय सबकी एक ही उत्तम जाति होती है, वहां न ब्राह्मणादि चार वर्णं होते हैं व असि, मषी आदि छह कर्म होते हैं, न सेवक और स्वामीका सम्बन्ध होता है और न वेषधारी ही होते हैं ॥ १०३ ॥ वहाँके मनुष्य सब विषयोंमें मध्यस्थ रहते हैं, वहाँ न मित्र होते हैं और न शत्रु । एवं स्वभावसे ही अल्पकषायी होनेके कारण आयु समाप्त होनेपर सब नियमसे देव पर्यायको ही प्राप्त होते हैं || १०४ || जन्म से ही जिसका प्रेमभाव परस्परमें निबद्ध रहता था ऐसे पुरुषकी मृत्यु छींक आनेसे तथा स्त्रीकी मृत्यु जिम्हाई लेने मात्र से सुखपूर्वक हो जाती थी || १०५ ।।
अथानन्तर गणधर देव श्रेणिकका मनोभिप्राय जानकर भोगभूमिमें उत्पन्न होने के कारण इस प्रकार कहने लगे ॥ १०६ ॥ कर्म-भूमिके जो मनुष्य स्वभावसे ही मन्दकषाय होते हैं वे पात्रदानके प्रभावसे भोगभूमिमें मनुष्य होते हैं ॥ १०७॥ जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तपकी शुद्धिसे पवित्र हैं तथा शत्रु और मित्रोंपर मध्यस्थ भाव रखते हैं ऐसे साधु उत्तम पात्र कहलाते हैं || १०८ || संयमासंयमको धारण करनेवाले श्रावक मध्यम पात्र हैं और अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र कहे जाते हैं || १०९ || उक्त तीनों प्रकारके पात्रोंमें यथायोग्य दान देकर बुद्धिमान् मनुष्य भोगभूमिमें आर्य होकर वहाँका दिव्य सुख भोगता है ||११०|| जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में विधिपूर्वक बोया हुआ छोटा भी बीज वृद्धिको प्राप्त होता है उसी प्रकार पात्रके लिए दिया हुआ आहार आदि दान भी वृद्धिको प्राप्त होता है ॥ १११ ॥ जिस प्रकार धान और ईख के खेत में पड़ा हुआ जल मीठा हो जाता है और गायोंके द्वारा पोया हुआ पानी दूध पर्यायको प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार पात्रके लिए दिया हुआ अल्प रसवाला अन्न, पान तथा औषध्यादिकका दान परभवमें अविनाशी तथा अमृतके समान स्वादसे युक्त हो जाता है ।। ११२-११३ ।। जो स्थूल हिंसा आदिसे निवृत्त हैं परन्तु मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके धारक हैं वे कुपात्र कहलाते हैं और जो स्थूल हिंसा आदि से भी निवृत्त नहीं हैं उन्हें अपात्र जानना चाहिए ।। ११४|| कुपात्र दानके प्रभाव से मनुष्य, भोगभूमियोंमें तिर्यंच होते हैं अथवा कुमानुष कुलों में उत्पन्न होकर अन्तर द्वीपोंका उपभोग करते हैं ।। ११५ || जिस प्रकार खराब खेत में बोया हुआ बीज अल्प फलवाला होता है उसी प्रकार कुपात्रके लिए दिया हुआ दान भी दाताको कुभोग प्राप्त करानेवाला होता है | ११६ || जिस प्रकार ऊषर क्षेत्र में बोया हुआ धान समूल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार कुपात्रके लिए दिया हुआ दान भी निष्फल हो जाता है ॥११७॥
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