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पञ्चमः सर्गः
लक्षद्वयं सहस्राणि सप्तविंशतिरन्तरम् । शतं सप्ततिरेषां' स्यात् पादोनं योजनं पृथक् ॥४५०॥ विदिक्षु क्ष द्रपाताल चतुष्कं मुखमूलयोः । सहस्रं विस्तृतं दैर्ध्य मध्यविस्तारतो दश ॥४५१|| चतुर्णामपि तेषां स्यात्पञ्चाशत्कुड्यविस्तृतिः । एकैकस्य त्रिभागेषु प्रागिवाम्भः प्रभञ्जनौ ॥ ४५२ ॥ त्रियोजन सहस्राणि त्रयस्त्रिंशं शतत्रयम् । सत्रिभागं त्रिमागानां प्रत्येकं योजनस्थितिः ॥ ४५३ ॥ एकलक्षा सहस्राणि त्रयोदश निजान्तरम् । पञ्चाशीति त्रयोऽष्टांशाः कुण्डानां दिग्वि दिस्थितम् ॥ ४५४ ॥ मुक्तावलीवदेतेषामन्तरालेषु चाष्टसु । समुद्रे क्षुद्र पाताल सहस्र मवतिष्ठते ॥ ४५५ ॥ सहस्रमवगाहश्च मध्यविष्कम्भ एव च । योजनानां शतं तेषां विस्तारो मुखमूलयोः ॥ ४५६ ॥ पञ्चविंशतं तानि प्रत्येकं चान्तरेऽन्तरे । द्विहीनाष्टशती क्रोशः सविशेषस्तदन्तरम् ॥४५७ ॥ यथायोगपरावृत्त सलिलाप्लवविप्लवाः । पातालौघाः समस्तास्ते क्षुद्राश्च परिकीर्तिताः ||४५८ ॥ तटाद् गत्वा सहस्राणि द्वाचत्वारिंशतं समौ । चतुर्दिक्षु सहस्रोच्चैः द्वौ द्वौ स्यातां तु पर्वतौ ॥ ४५९॥ कौस्तुभः कौस्तुमासश्च पाताळस्योमयान्तयोः । राजतावर्द्ध कुम्भामौ तत्सुरौ विजयश्रियौ ॥ ४६०॥ उदकश्योदवासश्च कदम्बुकसमीपगौ । शिवश्च शिवदेवश्च तयोर्देवौ यथाक्रमम् ॥ ४६ ॥
शङ्खमहाशङ्खौ वडवामुखपार्श्वगौ । शङ्खामावुदकश्च स्यादुदवासश्च तत्सुरौ ॥४६२ ॥ resistaratsu यूपकेसरपार्श्वगी । रोहितो लोहिताङ्कश्च तत्सुरौ परिकीर्तितौ ॥ ४६३ ॥
दो लाख सत्ताईस हजार एक सौ पौने इकहत्तर योजन है ||४५०||
चारों विदिशाओं में चार क्षुद्र पाताल-विवर हैं इनका ऊपर और नीचे एक-एक हजार तथा मध्यमें दश हजार योजन विस्तार है एवं उनकी ऊंचाई भी दश हजार योजन है ||४५१ || इन चारोंकी दीवालोंको चोड़ाई पचास योजन है तथा प्रत्येकके तीन तीन भाग हैं और उनमें पूर्व की भांति जल तथा वायुका सद्भाव है || ४५२|| तीनों भागों में प्रत्येक भाग तीन हजार तीन सौ तीस योजन तथा एक योजनके तीन भागों में एक भाग प्रमाण है || ४५३ || दिशाओं और विदिशाओं के पाताल- विवरोंका परस्पर अन्तर एक लाख तेरह हजार पचासी योजन है || ४५४ || लवण समुद्र में इन आठ पाताल- विवरों के आठ अन्तरालोंमें एक हजार क्षुद्र पाताल और भी हैं जो मोतियों की माला समान सुन्दर जान पड़ते हैं || ४५५ || इन क्षुद्र पाताल-विवरोंकी गहराई एक हजार योजन है और विस्तार मध्य में एक हजार योजन तथा ऊपर-नीचे सौ-सौ योजन है ||४५६|| ये क्षुद्र पाताल विवर एक-एक अन्तराल के बीच में एक सौ पचीस-एक सौ पचीस हैं तथा इनका पारस्परिक अन्तर सात सौ अंठानबे योजन एवं कुछ अधिक एक कोश है || ४५७|| जिनमें यथायोग्य पानीका प्रवेश तथा निर्गम होता रहता है, ऐसे ये समस्त पाताल -विवरोंके समूह क्षुद्र पाताल कहे गये हैं ।। ४५८ ।।
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तटसे बयालीस हजार योजन चलकर चारों दिशाओं में एक-एक हजार योजन ऊँचे दो-दो पर्वत हैं || ४५९ || पूर्व दिशाके पाताल-विवरकी दोनों ओर कौस्तुभ और कौस्तुभास नामके अर्धकुम्भकार चाँदी के दो पर्वत हैं इनके अधिष्ठाता ( उदक और उदवास) देव विजयदेव के समान वैभवको धारण करनेवाले हैं ||४६०|| दक्षिण दिशा के कदम्बुक पातालविवरके समीप उदक और उदवास नामके दो पर्वत हैं । क्रमसे शिव तथा शिवदेव उनके अधिष्ठाता देव हैं ||४६१ || पश्चिम दिशा के बडवामुख पातालविवरके समीप शंख और महाशंख नामके दो पर्वत हैं तथा शंखके समान आभावाले शिव और शिवदेव नामक देव अधिष्ठाता हैं || ४६२|| उत्तर दिशाके भूपकेसर पातालविवरके समीप उदक और उदवास ये दो पर्वत हैं तथा रोहित और लोहितांक उनके अधिष्ठाता देव
१. -रेव ख । २. तदनन्तरं म. ।
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