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हरिवंशपुराणे
क्रोशस्य सप्तमो भागस्ताराणामल्पमन्तरम् । पञ्चाशन्मध्यमं दूरं सहस्रं योजनानि तत् ॥ १४॥ भान्ति सूर्यविमानानि लोहिताक्षमयानि तु । अर्द्धगोलकवृत्तानि प्रतप्ततपनीयवत् ॥१५॥ " तथार्कमणिमूत्तनि मृणालधवलानि तु । मान्ति चन्द्रविमानानि कान्तिसंतानवन्ति वै ॥१६॥ अरिष्टमणिमूर्त्तीनि समान्यञ्जनपुञ्जकैः । भान्ति राहुविमानानि चन्द्रार्काधःस्थितानि तु ॥१७॥ एकयोजन विष्कम्भव्यायामानि तु तान्यपि । शते वर्द्धतृतीये द्वे धनुषी बहलानि च ॥ १८ ॥ विषा राजतमूर्तीनि जयन्ति नवमालिकाम् । तथा शुक्रविमानानि प्रकाशन्ते समन्ततः ॥१९॥ जात्यमुक्ताफलाभानि विभान्त्यर्कमणित्विषा । बृहस्पतिविमानानि बुधानां कनकानि तु ॥ २० ॥ शनैश्वर विमानानि तपनीयमयानि तु । अङ्गारकविमानानि लोहिताक्षमयानि हि ॥ २१॥ ज्योतिर्लोकविमानानामियं वर्णविकल्पना | अरुणद्वीपवार्धस्तु केवलं कृष्णवर्णता ॥ २२ ॥ मानुषोत्तरतः पूर्वमुदयास्तव्यवस्थितिः । परतस्तु समस्तानां स्थितिरेव नमस्थले ॥ २३ ॥ सूर्याचन्द्रमसस्तेषां ज्योतिषां तु यथायथम् । सङ्ख्येयानामसङ्ख्यानामिन्द्रास्तावत्प्रमाणकाः ॥ २४॥ तत्रैकादशभिर्मेरुमेकविंशैः शतैश्चलाः । ज्योतिष्कास्त्वनवाप्यैव प्रभ्रमन्ति प्रदक्षिणम् ॥२५॥ द्वीपे तु हौ मतौ सूर्यौ द्वौ च चन्द्रमसाविह । चत्वारो लवणोदेऽमी द्वीपे द्वादश तत्परे ॥ २६ ॥ द्वाचत्वारिंशदादिस्याः कालोदे शशिनस्तथा । पुष्करार्द्धं तु विज्ञेया द्वासप्ततिरमी पुनः ||२७|| षट् च षष्टिसहस्राणि तथा नवशतानि च । कोटीको व्यस्तु ताः सर्वाः पञ्चसप्ततिरेव च ॥ २८॥ एकैकस्यैव चन्द्रस्य परिवारस्तु तारकाः । अष्टाविंशतिनक्षत्रास्तेऽष्टाशीतिर्महाग्रहाः ॥२९॥ परस्तात्पुष्करार्दे तु द्वासप्ततिरिति स्थिताः । निश्चलाः सर्वदादित्यास्तावन्तः शशिनस्तथा ॥३०॥
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विस्तृत है ॥११- १३ ॥ ताराओंका जघन्य अन्तर कोशका सातवां, मध्यम अन्तर पचास योजन और उत्कृष्ट अन्तर एक हजार योजन है || १४ || सूर्यके विमान लोहिताक्षमणिके हैं, अर्ध गोलक समान गोल तथा तपाये हुए सुवर्णके समान सुशोभित हैं || १५ || चन्द्रमाके विमान स्फटिक मणिमय हैं, मृणाल के समान सफेद हैं तथा कान्तिके समूहसे युक्त होनेके कारण अत्यन्त सुशोभित हैं ||१६|| राहु विमान अरिष्टमणिमय हैं, अंजनकी राशिके समान श्याम हैं तथा चन्द्रमा और सूर्यं विमानके नीचे स्थित हैं ||१७|| राहुके विमान एक योजन चौड़े, एक योजन लम्बे, तथा ढाई सौ धनुष मोटे हैं || १८ || शुक्र विमान रजतमय हैं, अपनी कान्तिसे नूतन मालतीकी मालाको जीतते हैं तथा सब ओरसे प्रकाशमान हैं ||१९|| जिनकी आभा उत्तम मुक्ताफलके समान है, ऐसे बृहस्पतिके विमान स्फटिक मणिसदृश कान्तिसे सुशोभित हैं । बुधके विमान सुवर्णमय हैं, शनैश्चर के विमान तप्त स्वर्णमय हैं, और अंगारक - मंगलके विमान लोहिताक्षमणिमय हैं ||२० - २१ ॥ यह वर्णों की विविधरूपता ज्योतिर्लोक गत विमानोंकी है किन्तु अरुण समुद्रके ऊपर जो ज्योतिर्विमान हैं उनका केवल श्यामवर्ण ही है ||२२|| ज्योतिर्विमानोंके उदय और अस्तकी व्यवस्था मानुषोत्तर पर्वतके इसी ओर है उसके आगे के समस्त विमान आकाशमें स्थित ही हैं उनमें संचार नहीं होता ||२३|| मानुषोत्तर पर्वत तक के ज्योतिषी संख्यात हैं और उसके आगेके असंख्यात । उन दोनों प्रकारके ज्योतिषियोंके इन्द्र, सूर्य और चन्द्रमा हैं । संख्यात ज्योतिषियोंके इन्द्र संख्यात सूर्य चन्द्रमा हैं और असंख्यात ज्योतिषियोंके इन्द्र असंख्यात सूर्य चन्द्रमा हैं ||२४|| उनमें जो गतिशील ज्योतिषी हैं वे ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर हटकर मेरुकी प्रदक्षिणा देते हुए भ्रमण करते हैं ||२५|| जम्बू द्वीपमें दो सूर्य, दो चन्द्रमा, लवण समुद्र में चार सूर्य, चार चन्द्रमा, धातकीखण्ड में बारह सूर्य, बारह चन्द्रमा, कालोदधिमें बयालीस सूर्यं, बयालीस चन्द्रमा और पुष्करार्ध में बहत्तर सूर्य और बहत्तर चन्द्रमा हैं || २६ - २७|| एक-एक चन्द्रमाके छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोड़ा-कोड़ी तारा, अट्ठाईस नक्षत्र और अठासी महाग्रह हैं ॥ २८-२९ ॥ मानुषोत्तर के आगे पुष्करार्ध में बहत्तर
१. तथांक म., क.
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