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षष्ठः सर्गः सहस्राणि तु पञ्चाशत् सर्वतो मानुषोत्तरात् । प्रगत्यादित्यचन्द्राद्याश्चक्रवालैर्व्यवस्थिताः॥३१॥ नियुतं नियुतं गत्वा परितः' परितः स्थिताः । चतुरभ्यधिकं शश्वदन्योन्योन्मिश्ररश्मयः ॥३२॥ धात यादिषु चन्द्रार्काः क्रमेण त्रिगुणाः पुनः । व्यतिक्रान्तैर्युतास्ते स्युद्वीपे च जलधौ परे ॥३३॥ ज्योतिर्लो कविभागस्य संक्षेपोऽयमुदीरितः । ऊर्वलोकविभागस्य संक्षेपः प्रतिपाद्यते ॥३४॥ मेरुचूलिकया सार्द्धमूर्ध्वलोकः समीरितः । उपर्युपरि तस्याः स्युः कल्पा ग्रैवेयकादयः ॥३५॥ सौधर्मः प्रथमः कल्पः परश्चैशान नामकः । सनत्कुमारमाहेन्द्रौ ब्रह्मब्रह्मोत्तरौ ततः ॥३६॥ कल्पो लान्तवकापिष्टौ तथैव कथितो ततः । पुनः शुक्रमहाशुक्रौ दक्षिणोत्तरदिग्गतौ ॥३७।। शतारच सहस्रार आनतः प्राणतस्ततः । आरणश्चाच्युतश्चेति कल्पाः षोडश माषिताः ॥३८॥ 4वेयकाखिवै स्युरधोमध्योपरि स्थिताः । प्रत्येकं त्रिविधास्ते स्युरधोमध्योलभेदतः ॥३९॥ नदानुदिशनामानि ततोऽनुत्तरपञ्चकम् । ईषत्प्राग्भारभूम्यन्त ऊर्ध्वलोकः प्रतिष्ठितः ॥४०॥
सूर्य और बहत्तर चन्द्रमा हैं, ये सदा निश्चल रहते हैं ।।३०|| मानुषोत्तर पर्वतसे पचास हजार योजन आगे चलकर सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी-वलयके रूपमें स्थित हैं। भावार्थ-मानुषोत्तरसे पवास हजार योजन चलकर ज्योतिषियोंका पहला वलय है ।।३१।। उसके आगे एक-एक लाख योजन चलकर ज्योतिषियोंके वलय हैं। प्रत्येक वलयमें चार-चार सूर्य और चार-चार चन्द्रमा अधिक हैं एवं एक दूसरेको किरणें निरन्तर परस्परमें मिली हुई हैं ।।३२।। धातकीखण्ड आदि द्वीपसमुद्रोंमें सूर्य-चन्द्रमा क्रमसे तिगुने-तिगुने हैं। विशेषता यह है कि उनमें पिछले द्वीप-समुद्रोंके सूर्य-चन्द्रमाओंकी संख्या भी मिलानी पड़ती है। जैसे, कालोदधि समुद्रके सूर्य-चन्द्रमाओंकी संख्या बयालीस है, वह इस प्रकार निकलती है-कालोदधिसे पिछला द्वीप धातकीखण्ड है इसके सूर्य- . चन्द्रमाओंकी संख्या बारह है, इससे तिगुनी संख्या छत्तीस हुई, उसमें लवण समुद्र तथा जम्बूद्वीपके सूर्य-चन्द्रमाओंकी छह संख्या जोड़ देनेसे कालोदधिके सूर्य-चन्द्रमाओंकी संख्या बयालीस निकल । आता है। पूष्करवर द्वापके मानुषोत्तर तक बहत्तर और उसके आगे बहत्तर दोनों मिलाकर एक सो चौवालीस सूर्य-चन्द्रमा हैं। उनके निकालने की विधि यह है कि पुष्कर द्वीपसे पूर्ववर्ती कालोदधिक्री संख्या बयालीसको तिगुना किया तो एक सौ छब्बोस हुए, उनमें कालोदधिके बारह, लवण समुद्रके चार और जम्बूद्वीपके दो इस प्रकार अठारह और मिलाये जिससे एक सौ चौवालीस सिद्ध हुए। इसी प्रकार आगे-आगेके द्वीप-समुद्रोंमें जानना चाहिए ॥३३।। इस प्रकार यह ज्योतिर्लोकके विभागका संक्षेपसे वर्णन किया । अब ऊध्र्वलोकके विभागका संक्षेपसे वर्णन किया जाता है ।।३४||
मेरु पर्वतकी चूलिकाके साथ ऊर्ध्वलोक शुरू होता है अर्थात् चूलिकासे ऊपर ऊर्ध्वलोक है । चूलिकाके ऊपर-ऊपर स्वर्ग तथा ग्रैवेयक आदि हैं ॥३५॥ १ सौधर्म, २ ऐशान, ३ सनत्कुमार, ४ माहेन्द्र, ५ ब्रह्म, ६ ब्रह्मोत्तर, ७ लान्तव, ८ कापिष्ठ, ९ शुक्र, १० महाशुक्र, ११ शतार, १२ सहस्रार, १३ आनत, १४ प्राणत, १५ आरण और १६ अच्युत ये सोलह कल्प कहे गये हैं। इनकी रचना दक्षिण और उत्तरके भेदसे दो-दोके जोड़के रूप में है ।।३६-३८॥ उनके ऊपर अधोवेयक, मध्यग्रेवेयक और उपरिम ग्रेवेयकके भेदसे तीन प्रकारके ग्रेवयक हैं। इन तीनों ग्रैवेयकोंके भी आदि, मध्य और ऊर्ध्वके भेदसे तीन-तीन भेद होते हैं। इन ग्रैवेयकोंके नौ पटल* हैं ।।३९|| उसके आगे
१. लक्षं लक्षम् । * नव-वेयक-१ सुदर्शन, २ अमोघ, ३ सुप्रबुद्ध, ४ यशोवर, ५ सुभद्र, ६ विशाल, ७ सुमन, ८ सौमनस, ९ प्रीतिकर।
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