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हरिवंशपुराणे
स्वयम्भूरमणद्वीप मध्य देशस्थितो गिरिः । स्वयंप्रभ इति ख्यातो भ्राजते वलयाकृतः ।।७३०।। मानुषोत्तर शैलस्य मध्ये तस्य च भूभृतः । भोगभूमिप्रतीभागास्तिरश्चां द्वीपवासिनाम् ।।७३१|| परस्तात्तु गिरेस्तस्य तिर्यखः कर्मभूमिवत् । असङ्घवेया यतस्तत्र संयतासंयताश्च ते ।।७३२।। उक्तद्वीपसमुद्रेषु पर्वतेष्वपि हारिषु । वसन्ति व्यन्ता देवाः किन्नरायां यथायथम् ॥ ७३३|| प्रज्ञप्तिः श्रेणिक ज्ञाता द्वीपसागरगोचरा । प्रज्ञप्तिं शृणु संक्षेपाज्ज्योतिर्लोकोर्ध्वलोकयोः ।।७३४ ।।
शार्दूलविक्रीडितम्
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जम्बूद्रीपतदम्बुधिप्रभृतिसद्वीपावली सागर
प्रज्ञप्तिस्फुटसंग्रहं मुनिमतं भव्यस्य संशृण्वतः । संशीतिः प्रलयं प्रयाति सकला भूलोकसंबन्धिनी
किं ध्वान्तस्य कृतोदये मुनिरवौ संतिष्ठते संहतिः ॥७३५॥
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इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृतो द्वीपसागरवर्णनो नाम पञ्चमः सर्गः समाप्तः ।
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स्वयंभूरमण द्वीपके मध्यमें स्थित, चूड़ीके आकारवाला एक स्वयंप्रभ नामका पर्वत सुशोभित है || ७३० || मानुषोत्तर और स्वयंप्रभ पर्वतके बीच असंख्यात द्वीपोंमें जो तिर्यंच रहते हैं उनकी जघन्य भोगभूमि तिर्यंचों की सदृशता है ||७३१|| स्वयंप्रभ पर्वत के आगे जो तिथंच हैं वे कर्मभूमिज तिर्यंचोंके समान हैं क्योंकि उनमें असंख्यात तियंच संयतासंयत - देशव्रती भी होते हैं ||७३२|| ऊपर कहे हुए द्वीप समुद्रों में तथा मनोहारी पर्वतोंपर किन्नर आदि व्यन्तर देव यथायोग्य निवास करते हैं || ७३३ || गौतम स्वामी कहते हैं कि श्रेणिक ! इस प्रकार तूने द्वीपसागर सम्बन्धी प्रज्ञप्ति जानी अब इसके आगे संक्षेपमें ज्योतिर्लोक तथा ऊध्वलोक सम्बन्धी प्रज्ञप्तिका श्रवण कर || ७३४|| जम्बू द्वीप तथा लवणसमुद्रको आदि लेकर उत्तमोत्तम द्वीप तथा सागर सम्बन्धी प्रज्ञप्तिके इस मुनि सम्मत स्पष्ट संग्रहको जो भव्य सुनता है उसका पृथिवी लोक सम्बन्धी समस्त संशय नष्ट हो जाता है सो ठीक ही है. क्योंकि मुनि रूपी सूर्यके उदित होनेपर क्या अन्धकारका समूह कहीं ठहर सकता है ? अर्थात् नहीं ||७३५ ।।
इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमि पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराणमें द्वीप सागरोंका वर्णन करनेवाला पंचम सर्ग समाप्त हुआ ।
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