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पञ्चमः सर्गः
स्फटिके लम्बुसा त्वङ्के मिश्रकेशी व्यवस्थिता । तथैवाञ्जनके ज्ञेया कुमारी पुण्डरी किणी ।। ७१५ || वारुणी काञ्चनाख्ये स्यादाशाख्या रजते तथा । कुण्डले हीरिति ज्ञाता रुचके श्रीरितीरिता ।।७१६।। धृतिः सुदर्शने देवो दिक्कुमार्य इमाः पुनः । गृहीतचमरा जैनीं मातरं पर्युपासते ।।७१७ ॥ दिक्षु चत्वारि कूटानि पुनरन्यानि दीप्तिभिः । दीपिताशान्तराणि स्युः पूर्वादिषु यथाक्रमम् || ७१८ || पूर्वस्यां विमले चित्रा दक्षिणस्यां तथा दिशि । देवी कनकचित्राख्या तित्यालोकेऽवतिष्ठते ॥ ७१९ || त्रिशिरा इति देवी स्यादपरस्यां स्वयंप्रभे । सूत्रामणिरुदीच्यां च नित्योद्योते वसत्यसौ ।।७२०|| विद्युत्कुमार्य एतास्तु निमातृसमीपगाः । तिष्ठन्त्युद्योतकारिण्यो भानुदीधितयस्तथा ॥ ७२१ ॥ पूर्वोत्तरस्यां वैडूर्ये रुचका विदिशीरिता । तथा दक्षिणपूर्वस्य रुचके रुचकोज्ज्वला ॥७२२॥ दक्षिणापरदिश्यन्ते रुचकामा मणिप्रभे । रुवकोत्तम केऽन्यस्यां दिशि स्याद् रुचक्रप्रभा ।। ७२३।। एतास्तु दिक्कुमारीणां स्युर्महतरिका वराः । विदिक्षु पुनरन्यानि चतुःकूटान्यमूनि च ।।७२४।। पूर्वोत्तरे तु विजया रहने रत्नप्रभे पुनः । दिशि दक्षिणपूर्वस्यां वैजयन्ती प्रभाषिता ॥७२५|| जन्ती सर्वरत्ने तु दक्षिणापरदिग्गते । रलोच्चयेऽपि शेषायां दिशि स्यादपराजिता ।। ७२६।। एता विद्युत्कुमारीणां स्युर्महत्तरिका इमाः । तीर्थंकृजातकर्माणि कुर्वन्त्यष्टाविहागताः ||७२७ || चतुर्दिक्षु नगस्योर्ध्वं चत्वार्यायतनानि च । अन्जनालयतुल्यानि प्राङ्मुखानि जिनेशिनाम् ।। ७२८ || सविदिदिक्कुमारीणां वासकटैर्जिनालयैः । नित्यालंकृतमूर्धासौ राजते रुचकालयः ।। ७२९ ।।
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इसी प्रकार उत्तर दिशा में भी आठ कूट हैं और उनमें पहले स्फटिक कूटपर लम्बुसा, दूसरे अंक कूटपर मिश्रकेशी, तीसरे अंजनक कूटपर पुण्डरोकिणो, चौथे कांचन कूटपर वारुणी, पाँचवें रजत कूटपर आशा, छठवें कुण्डल कूटपर हो, सातवें रुचक कूटपर श्री और आठवें सुदर्शन कूटपर धृति नामकी देवी रहती है । देवियां हाथमें चमर लेकर जिनमाताकी सेवा करती हैं ।। ७१५-७१७।। इनके सिवाय पूर्वादि दिशाओं में दीप्तिसे दिशाओंके अन्तरालको देदीप्यमान करनेवाले चार कूट और हैं जो यथाक्रमसे इस प्रकार हैं- पूर्व दिशा में विमल नामक कूट है और उसपर चित्रा देवी रहती है । दक्षिण दिशा में नित्यालोक नामका कूट है और उसपर कनकचित्रा देवीका निवास है । पश्चिम दिशामें स्वयंप्रभ नामका कूट है और उसपर त्रिशिरस् देवी निवास करती है तथा उत्तर दिशामें नित्योद्योतनामका कूट है और उसपर सूत्रामणि देवी रहती है। ये विद्युत्कुमारी देवियां सूर्य की किरणों के समान प्रकाश करती हुई जिनमाताके समीप स्थिर रहती हैं ।।७१८-७२१ ।। पूर्वोत्तर - ऐशान विदिशामें वैडूर्य नामका कूट है उसपर रुवका देवो रहती है, दक्षिणपूर्वा - आग्नेयविदिशा में रुचक नामका कूट है उसपर रुचकोज्ज्वला देवी रहती है, दक्षिण-पश्चिम - नैऋत्य विदिशा में मणिप्रभ कूट है उसपर रुचकाभा देवी निवास करती है और पश्चिमोत्तर - वायव्य दिशा में रुचकोत्तम कूट है उसपर रुचकप्रभा देवीका निवास है ।।७२२- ७२३|| ये चारों दिक्कुमारी देवियोंकी उत्कृष्ट महत्तरिका (प्रधान) देवियाँ हैं । इनके सिवाय विदिशाओं में निम्नलिखित चार कूट और हैं ||७२४|| उनमें ऐशान दिशामें रत्न कूटपर विजया देवीका निवास है, आग्नेय दिशामें रत्नप्रभ कूटपर वैजयन्ती देवी निवास करती है; नैऋत्य दिशा में सर्वरत्न कूटपर जयन्ती देवी रहती है और वायव्य दिशा में रत्नोच्चय कूटपर अपराजिता देवी निवास करती है। ये चार देवियाँ विद्युत्कुमारी देवियोंकी महत्तरिका हैं । ऊपर कही हुई चार विद्युत्कुमारियाँ तथा चार ये इस प्रकार आठों देवियाँ यहाँ आकर तीर्थंकरका जातकर्म करती हैं ।।७२५ - ७२७॥ रुचिकगिरिके ऊपर चारों दिशाओं में, चार जिनमन्दिर हैं। ये अंजनगिरियोंके समान विस्तारवाले हैं तथा पूर्वकी ओर इनका मुख है || ७२८ || दिशाओं एवं विदिशाओंमें रहनेवाली देवियोंके निवास- कूटों तथा जिन-मन्दिरोंसे जिसका मस्तक सदा अलंकृत रहता है ऐसा यह रुचकगिरि अतिशय सुशोभित है || ७२९ ||
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