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हरिवंशपुराणे
sorter द्विष्णाप्येष दक्षिणेनोत्तरेण च । विभक्तो भिद्यते द्वेधा स पूर्वश्चापि पश्चिमः ॥ ५७८ ॥ प्रत्येकं मेरुमध्यौ तौ धातकीखण्डखण्डवत् । क्षेत्रपर्वतनद्याद्यैः पूर्वनाममिरन्वितौ ॥ ५७९ ॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि सहस्त्रं पञ्चशत्यपि । सप्ततिर्नव चांशास्तु त्रिसप्तत्युत्तरं शतम् ॥ ५८० ॥ भरतान्तरविष्कम्मो मध्यो द्वादशयोजनैः । त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि शतैः पञ्चभिरेव च ॥५८१ ॥ भागाश्वास्य शतं प्रोक्ता नवतिश्व नवापि च । बाह्योऽपि भाष्यते तस्य विष्कम्भो भरतस्य तु ॥ ५४२ ॥ पञ्चषष्टिसहस्राणि योजनानि चतुःशतैः । षट् चत्वारिंशदेतानि भागाश्वासौ त्रयोदश ॥ ५८३ ॥ आविदेहं च विष्कम्भाद् वर्षाद् वर्ष चतुर्गुणम् । गणितज्ञैर्विनिर्दिष्टं पर्वतादपि पर्वतः ॥ ५८४ ॥ एका कोटिः पुनर्लक्षा द्वाचत्वारिंशदेव ताः । त्रिंशच्चापि सहस्राणि योजनानां शतद्वयम् ॥ ५८५ ॥ साधिकैकाशपञ्चाशद् योजनानि बहिर्भवः । पुष्करार्धस्य सर्वस्य परिधिः परिभाषितः ॥ ५८६ ॥ तिस्रो लक्षाः सहस्राणि पञ्च पञ्चाशदद्विभिः । रुद्धं क्षेत्रं शतैः षद्भिरशांत्या चतुरन्तया ॥ ५८७ ॥ वैताढ्य वृत्तवैतायास्तथा वर्षधरादयः । निजोत्सेधावगाहाभ्यां तैर्जम्बूद्वीपजैः समाः ॥५८८ ॥ धातकीखण्ड जेभ्यस्तु विष्कम्भा द्विगुणा मताः । पुष्करार्द्ध समौ प्राग्भ्यामिवाकारौ च मन्दरौ ॥ ५८९ ॥ मानुषक्षेत्र विष्कम्भश्चत्वारिंशच्च पञ्च च । लक्ष्यास्त्वर्धतृतीयौ तौ द्वीपो वार्धिद्वयन्वितौ ॥५९० ॥ योजनानां सहस्रं तु सप्तशत्येकविंशतिः । उच्छ्रायः सच्छ्रियस्तस्य मानुषोत्तरभूभृतः ॥ ५९१|| सक्रोशोऽपि च सत्रिंशदवगाहश्चतुःशती । द्वाविंशत्या सहस्रं तु मूलविस्तार इष्यते ॥ ५९२ ॥ त्रयोविंशतियुक्तानि मध्ये सप्त शतानि तु । विस्तारोऽस्योपरि प्रोक्तश्चतुर्विंशाश्चतुःशती ॥५९३ ॥ कोटी तुपरिधिर्लक्षा द्विचत्वारिंशदस्य च । षट्त्रिंशश्च सहस्राणि सप्तशत्या त्रयोदश ॥ ५९४ ॥
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मानुषोत्तर पर्वतसे घिरा हुआ है इसलिए पुष्करार्धं माना गया है ||५७७|| यह द्वीप उत्तर और दक्षिण दिशा में पड़े हुए इष्वाकार पर्वतोंसे विभक्त है इसलिए इसके पूर्वं पुष्करार्धं और पश्चिम
करार्ध इस प्रकार दो भेद हो जाते हैं || ५७८ ।। इन दोनों ही खण्डोंके मध्य में धातकीखण्ड के समान मेरु पर्वत है तथा पहलेके ही समान नामवाले क्षेत्र पर्वत तथा नदी आदिसे दोनों खण्डयुक्त हैं || ५७९ || पुष्करार्धके भरत क्षेत्रका आभ्यन्तर विस्तार इकतालीस हजार पाँच सौ उन्यासी योजन तथा एक सौ तेहत्तर भाग है। मध्य विस्तार त्रेपन हजार पांच सौ बारह योजन एक सौ निन्यानबे भाग है और बाह्य विस्तार पैंसठ हजार चार सौ छियालीस योजन तेरह भाग कहा जाता है ।। ५८० - ५८३ ।। गणितज्ञ आचार्योंने विदेह क्षेत्र तक पूर्व क्षेत्रसे आगेके क्षेत्रका और पूर्व भवनसे आगे पर्वतका चौगुना विस्तार बतलाया है || ५८४ || समस्त पुष्करार्ध की बाह्य परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजनसे कुछ अधिक कही गयी है ।। ५८५-५८६ ।। पुष्करार्धंका तीन लाख पचपन हजार छह सौ चौरासी योजन प्रमाण क्षेत्र पर्वतोंसे रुका हुआ है ||५८७ || पुष्करार्धं के विजयाधं नाभिगिरि तथा कुलाचल आदि अपनी-अपनी ऊँचाई और गहराईकी अपेक्षा जम्बू द्वीपके विजयार्धं आदिके समान हैं ||१८८|| परन्तु विस्तारकी अपेक्षा धातकीखण्डके विजयार्धं आदिके दूने दूने हैं । पुष्करार्धके दोनों इष्वाकार तथा दोनों मेरु धातकीखण्ड के इष्वाकार और मेरुओंके समान हैं || ५८९ || अढ़ाई द्वीप तथा लवणोदधि और कालोदधि ये दो समुद्र मनुष्यक्षेत्र कहलाते हैं । इसका विस्तार पैंतालीस लाख योजन है ||५९० || उत्तम शोभासे सम्पन्न मानुषोत्तर पर्वतकी ऊँचाई एक हजार सात सौ इक्कीस योजन है || ५९१ ॥ गहराई चार सौ तीस योजन एक कोश है। मूल विस्तार एक हजार बाईस योजन, मध्य विस्तार सात सौ तेईस योजन और उपरितन भागका विस्तार चार सौ चौबीस योजन है ।।५९२ - ५९३ ॥ मानुषोत्तरकी परिधिका विस्तार एक करोड़ बयालीस लाख छत्तीस हजार सात
१. वृत्तवेदाड्या म. । २. खण्डकेभ्यस्तु क., म. ।
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