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पञ्चमः सर्गः
स्वयंभूरमणाभिख्या सर्वान्स्यौ द्वीपसागरौ । षोडशतेऽब्धिभिः सार्धं स्वनामसमनामभिः ॥६२६॥ राशिद्वयान्तराले स्युरसंख्या द्वीपसागराः । अनादिशुभनामानः सान्तरस्थितमूर्तयः ॥६२७॥ लवणो लवणस्वादस्तन्नामा वारुणीरसः । घृतक्षीररसौ द्वौ च कालोदान्त्यौ शुमोदको ॥६२८॥ मधूदकोभयास्वादः पुष्करोदः स्वभावतः । शेषास्त्विक्षरसास्वादाः सर्वेऽपि जलराशयः ॥६२९॥ लवणोद महामरस्याः संमूर्छनजमूर्तयः । नवयोजनदीर्घाः स्युस्तीरे मध्ये द्विरायताः ॥६३०॥ नदीमखेषु कालोदे ते त्वष्टादशयोजनाः । षत्रिंशद्योजना मध्ये गर्मजास्तु तदर्धकाः ॥६३१॥ 'स्वयंभूरमणेऽप्यादौ ते पञ्चशतयोजनाः । सहस्रयोजना मध्ये मरस्याद्या नान्यसिन्धुषु ॥६३२॥ मानुषोत्तरपर्यन्ता जन्तवो विकलेन्द्रियाः । अन्त्यद्वीपातः सन्ति परस्तात्ते यथा परे ॥६३३॥ द्वीपो वापि समद्रो वा विस्तारणकलक्षया । सर्वेभ्यः समतीतेभ्यः परस्तेभ्योऽतिरिच्यते ॥६३४॥ अर्धमन्दरविष्कम्मात् स्वयंभूर मणाम्बुधेः । अन्तः प्राप्य स्थितायास्तु रज्ज्वा मध्यमिदं विदुः ॥६३५॥ गुणितं पञ्चसप्तत्या सहस्रमगाह्य तु । स्वयंभूरमणाम्भोधि रज्जुमध्यमवस्थितम् ॥६३६॥
१५ इन्दुवर तथा सबसे अन्तिम स्वयम्भूरमण द्वीप तथा स्वयम्भू रमण सागर है। ये सभी द्वीप अपने समान नामवाले सागरोंसे वेष्टित हैं ॥६२२-६२६।। आदिके सोलह और अन्तके सोलह इन दोनों राशियों के बीच अनादि कालिक शुभ नामोंको धारण करनेवाले असंख्यात द्वीप और असंख्यात सागर हैं। इनमें द्वीपोंके बीच सागरका और सागरोंके बीच द्वीपका अन्तर विद्यमान है अर्थात् द्वीपके बाद सागर और सागरके बाद द्वीप इस क्रमसे इनका सद्भाव है ॥६२७|| इन समुद्रोंमें लवणसमुद्रके जलका स्वाद नमकके समान है, वारुणीवर समुद्रके जलका स्वाद वारुणी-शराबके तुल्य है, घृतवर और क्षीर समुद्रका जल क्रमसे घृत और दूधके समान है। कालोदधि और अन्तिमस्वयम्भरमणका जल पानीके समान है। पुष्करवर समुद्र मधु और पानी दोनोंके स्वादसे युक्त है तथा बाकी समस्त समुद्र इक्षुरसके समान स्वादवाले हैं ॥६२८-६२९।। लवण समुद्रके तीरपर सम्मूर्छन जन्मसे उत्पन्न हुए महामच्छ नौ योजन लम्बे हैं तथा मध्यमें इससे दूने अर्थात् अठारह योजन लम्बे हैं। कालोदधि समुद्र में नदियोंके प्रवेशस्थानपर अठारह योजन और मध्यमें छत्तीस योजन लम्बे हैं। गर्भजन्मसे उत्पन्न होनेवाले मच्छोंकी लम्बाई सम्मच्छेनज मत्स्योंसे आधी है ॥६३०-६३१॥ स्वयम्भूरमण समुद्रके तोरपर मच्छोंकी लम्बाई पांच सौ योजन और मध्यमें एक हजार योजन है। लवण समद्र, कालोदधि और स्वयम्भूरमण इन तीन समुद्रोंके सिवाय अन्य समुद्रोंमें मच्छ आदि जलचर जीव नहीं हैं ।।६३२।। इस ओर विकलेन्द्रिय जीव (दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय ) मानुषोत्तर पर्वत तक ही रहते हैं। उस ओर स्वयम्भूरमण द्वीपके अर्ध भागसे लेकर अन्त तक पाये जाते हैं ॥६३३॥ यदि किसी द्वीप या सागरका विस्तार जानना है तो उसके पहले जो भी द्वीप और सागर निकल चुके हैं उन सबके विस्तारको इकट्ठा कर लीजिए उससे एक लाख योजन अधिक विस्तार उस विवक्षित द्वीप या सागरका होता है ॥६३४॥ मेरु पर्वतकी अधं चौड़ाईसे लेकर स्वयम्भूरमण समुद्रके अन्त तक आधी राजू होती है। इस आधी राजूका मध्य स्वयम्भूरमण समुद्र में पचहत्तर हजार योजन प्रवेश करनेपर होता है । भावार्थ-समस्त मध्यम लोकका विस्तार एक राजू है। मेरु पर्वतको जो चौड़ाई है उसके अर्ध भागसे लेकर स्वयम्भूरमण समुद्रके अन्त तक आधी राजू होती है। आधी राजूके आधे भागमें आधा जम्बूद्वीप तथा असंख्यात द्वोप सागर और अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्रके पचहत्तर हजार योजन तकका प्रदेश आता है, बाकी आधी राजूमें
१. जलयरजीवा लवणे काले यंतिम सयंभुरमणे य ।
कम्म मही पडिवद्धे ण हि सेसे जलयरा जीवा ॥३२॥
-त्रिलोकसारस्य
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